भारतीय संविधान की प्रस्तावना इस प्रकार है:
हम, भारत के लोग,
भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए,
तथा उसके समस्त नागरिकों को:
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए,
तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए
दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ईस्वी (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
यह प्रस्तावना भारतीय संविधान के आदर्शों, उद्देश्यों और मूल्यों को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करती है। यह घोषणा करती है कि भारत के लोग ही संविधान के अंतिम स्रोत हैं और भारत एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य होगा। यह सभी नागरिकों के लिए न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व सुनिश्चित करने का संकल्प लेती है, साथ ही व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता को बनाए रखने पर जोर देती है।
परिचय
भारतीय संविधान की प्रस्तावना, जिसे उद्देशिका भी कहा जाता है, संविधान का एक महत्वपूर्ण प्रारंभिक भाग है। यह उन मूलभूत मूल्यों, उद्देश्यों और लक्ष्यों को निर्धारित करती है जिन पर भारत का सर्वोच्च कानून आधारित है। प्रस्तावना न केवल संविधान का एक संक्षिप्त सार प्रस्तुत करती है, बल्कि यह भारतीय राज्य के स्वरूप और उसके नागरिकों की आकांक्षाओं का भी परिचय देती है। इसे संविधान की आत्मा माना जाता है, जो इसके दर्शन और मार्गदर्शन सिद्धांतों को दर्शाती है। यह दस्तावेज भारत की संवैधानिक व्यवस्था को समझने के लिए आवश्यक है और यह राष्ट्र की पहचान और उसके लोकतांत्रिक आदर्शों को गहराई से व्यक्त करता है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना एक परिचयात्मक कथन है जो संविधान के दर्शन और उद्देश्य को स्पष्ट करता है। यह संविधान के सिद्धांतों को प्रस्तुत करता है और उन स्रोतों को इंगित करता है जिनसे इसे अधिकार प्राप्त होता है। प्रस्तावना संविधान के मूल्यों, उद्देश्यों और लक्ष्यों को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह उन मुख्य उद्देश्यों को स्थापित करती है जिन्हें संविधान प्राप्त करना चाहता है, साथ ही उन सामाजिक-आर्थिक लक्ष्यों को भी निर्धारित करती है जिन्हें संवैधानिक प्रक्रियाओं के माध्यम से प्राप्त किया जाना है।प्रस्तावना को संविधान की आत्मा माना जाता है क्योंकि यह उन मूल्यों और सिद्धांतों को दर्शाती है जिन पर संविधान आधारित है। पंडित ठाकुर दास भार्गव ने इसे "संविधान की आत्मा" कहा है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना, जिसे 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा द्वारा अंगीकृत किया गया था, का मूल पाठ इस प्रकार है:
"हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित कराने वाली, बन्धुता बढ़ाने के लिए, दृढ़ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई॰ (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।"
यह पाठ कई महत्वपूर्ण तत्वों को दर्शाता है-
प्रस्तावना में उल्लिखित मुख्य शब्दों का अर्थ:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में कई महत्वपूर्ण शब्द शामिल हैं, जिनमें से प्रत्येक भारत के संवैधानिक ढांचे और आदर्शों के लिए गहरा अर्थ रखता है:
संप्रभु (Samprabhu): संप्रभुता का अर्थ है कि भारत अपने आंतरिक और बाहरी मामलों में निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है और किसी भी बाहरी शक्ति के नियंत्रण में नहीं है। इसका तात्पर्य है कि भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र है जिसके पास सर्वोच्च और पूर्ण अधिकार है। भारत न तो किसी अन्य देश पर निर्भर है और न ही किसी का उपनिवेश है। इसकी विधायिका को संविधान द्वारा निर्धारित सीमाओं के भीतर देश में कानून बनाने का अधिकार है।
समाजवादी (Samajwadi): समाजवादी शब्द, जिसे 1976 में 42वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया, आर्थिक समानता को बढ़ावा देने और धन की विषमताओं को समाप्त करने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। यह समाज में धन और संसाधनों के समान वितरण और सभी के लिए समान अवसर सुनिश्चित करने पर जोर देता है। भारत लोकतांत्रिक तरीकों से समाजवादी लक्ष्यों को प्राप्त करने में विश्वास रखता है और एक मिश्रित अर्थव्यवस्था का समर्थन करता है जहां निजी और सार्वजनिक दोनों क्षेत्र सह-अस्तित्व में हैं। भारत में समाजवाद का अर्थ एक कल्याणकारी राज्य है, जिसका उद्देश्य सभी प्रकार के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक शोषण से मुक्ति दिलाना है।
धर्मनिरपेक्ष (Dharmanirpeksh): धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य सभी धर्मों के प्रति तटस्थ है और सभी को समान मानता है। भारत किसी विशेष धर्म को बढ़ावा नहीं देता है और सरकार सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करती है। राज्य का कोई आधिकारिक या राष्ट्रीय धर्म नहीं है। यह शब्द भी 1976 में 42वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया था। भारतीय धर्मनिरपेक्षता सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान करने की संवैधानिक मान्यता पर आधारित है, और 'पंथनिरपेक्ष' शब्द का प्रयोग 'सर्व धर्म समभाव' की भावना को दर्शाता है। धर्मनिरपेक्षता जीवन के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं से धर्म को अलग करने पर जोर देती है, जिसमें धर्म को एक व्यक्तिगत मामला माना जाता है।
लोकतांत्रिक (Loktantrik): लोकतंत्र का तात्पर्य है कि सत्ता जनता के पास है, जो अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करती है। सर्वोच्च शक्ति लोगों के हाथ में निहित है। यह समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के सिद्धांतों पर आधारित है। नागरिकों को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के माध्यम से अपने प्रतिनिधियों को चुनने का अधिकार है, और इस प्रकार गठित सरकार लोगों के प्रति जवाबदेह होती है। प्रस्तावना में 'लोकतांत्रिक' शब्द का व्यापक अर्थ है, जिसमें न केवल राजनीतिक लोकतंत्र बल्कि सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र भी शामिल हैं। यह लोकप्रिय संप्रभुता के सिद्धांत को दर्शाता है।
गणराज्य (Ganarajya): गणराज्य का अर्थ है कि राष्ट्राध्यक्ष चुनाव के माध्यम से चुना जाता है। राज्य का मुखिया जनता द्वारा चुना जाता है, न कि वंशानुगत होता है। राजनीतिक शक्ति किसी एक व्यक्ति के हाथ में होने के बजाय लोगों के हाथ में रहती है। हर सार्वजनिक कार्यालय बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक नागरिक के लिए खुला है। भारत में, राष्ट्रपति का चुनाव एक निश्चित अवधि के लिए अप्रत्यक्ष रूप से किया जाता है।
न्याय (Nyay): प्रस्तावना सभी नागरिकों के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करती है। सामाजिक न्याय का अर्थ है जाति, धर्म, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव का अभाव। आर्थिक न्याय का तात्पर्य है धन और संसाधनों का समान वितरण। राजनीतिक न्याय का अर्थ है सभी नागरिकों को समान राजनीतिक अधिकार प्राप्त होना। प्रस्तावना में न्याय शब्द कानूनी रूप में नहीं आता है, लेकिन इन तत्वों को 1917 की रूसी क्रांति से लिया गया है 2।
स्वतंत्रता (Swatantrata): स्वतंत्रता का अर्थ है विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता। यह राज्य द्वारा व्यक्तियों की गतिविधियों पर प्रतिबंध की अनुपस्थिति को दर्शाता है, जिसे संविधान के अनुच्छेद 19-22 के तहत मौलिक अधिकारों के माध्यम से गारंटी दी गई है। यह स्वतंत्रता असीमित नहीं है, बल्कि इस पर कुछ उचित प्रतिबंध लगाए गए हैं। यह विवेक, भाषण और धर्म की स्वतंत्रता सुनिश्चित करती है।
समानता (Samanta): समानता का अर्थ है कानून के समक्ष सभी को समान मानना और स्थिति और अवसर की समानता स्थापित करना। इसका तात्पर्य है समाज के किसी भी वर्ग के लिए विशेषाधिकारों का अभाव और बिना किसी भेदभाव के हर व्यक्ति को समान अवसर प्रदान करना। प्रस्तावना देश के सभी लोगों के लिए स्थिति और अवसरों की समानता प्रदान करती है, जिसमें नागरिक, राजनीतिक और आर्थिक समानता शामिल है।
बंधुता (Bandhuta): बंधुता का अर्थ है व्यक्तियों की गरिमा और राष्ट्र की एकता तथा अखंडता सुनिश्चित करने के लिए लोगों के बीच भाईचारे की भावना। यह भाईचारे और एकता की भावना को बढ़ावा देता है ताकि देश एकजुट रहे। बंधुत्व में दो बातों को सुनिश्चित करना आवश्यक है: व्यक्ति का सम्मान और देश की एकता और अखंडता। यह शब्द संविधान के चौथे प्रमुख उद्देश्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
इन मुख्य शब्दों से पता चलता है कि भारतीय संविधान एक ऐसे राष्ट्र की कल्पना करता है जो संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और गणतांत्रिक है, और जो अपने सभी नागरिकों के लिए न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध है। 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द बाद में जोड़े गए, जो राष्ट्र की बदलती चेतना और विशिष्ट राजनीतिक विचारधाराओं को दर्शाते हैं। 'न्याय' की अवधारणा में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आयाम शामिल हैं, जो 1917 की रूसी क्रांति से प्रेरित हैं। 'स्वतंत्रता' और 'समानता' पूर्ण नहीं हैं, बल्कि संविधान द्वारा उल्लिखित उचित प्रतिबंधों के अधीन हैं, जो व्यक्तिगत अधिकारों और सामाजिक व्यवस्था के बीच संतुलन सुनिश्चित करते हैं। 'बंधुता' व्यक्तिगत गरिमा और राष्ट्रीय एकता और अखंडता दोनों पर जोर देती है, जिसका उद्देश्य सामाजिक विभाजन को दूर करना और भाईचारे और साझा पहचान की भावना को बढ़ावा देना है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना का ऐतिहासिक संदर्भ और उद्देश्य
भारतीय संविधान की प्रस्तावना का ऐतिहासिक संदर्भ पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा संविधान सभा में 13 दिसंबर 1946 को पेश किए गए 'उद्देश्य प्रस्ताव' में निहित है। इस प्रस्ताव को 22 जनवरी 1947 को संविधान सभा द्वारा अपनाया गया था। पुरुषोत्तम दास टंडन ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया था। उद्देश्य प्रस्ताव में उन "मूलभूत बातों" को सूचीबद्ध किया गया था जो उस संवैधानिक ढांचे के लिए दिशानिर्देश के रूप में काम करने वाली थीं जिस पर संविधान सभा बैठी थी। इस प्रस्ताव में भारत को एक स्वतंत्र, संप्रभु गणराज्य बनाने का संकल्प शामिल था। संविधान सभा में चर्चा के बाद, उद्देश्य प्रस्ताव के अधिकांश प्रावधानों को प्रस्तावना के रूप में अपनाया गया। प्रस्तावना संबंधी प्रस्ताव 17 अक्टूबर 1949 को प्रस्तुत किया गया था और 2 नवंबर 1949 को इसे स्वीकार कर लिया गया, जिससे यह संविधान का हिस्सा बन गया। अंततः, प्रस्तावना को 26 नवंबर 1949 को अपनाया गया और यह 26 जनवरी 1950 को भारत के संविधान के साथ लागू हुई।
प्रस्तावना को तैयार करने के पीछे मुख्य उद्देश्य भारत के लोगों की न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की आकांक्षाओं को दर्शाना था। यह उन उद्देश्यों और लक्ष्यों को रेखांकित करती है जिन्हें संविधान प्राप्त करना चाहता है। यह संविधान निर्माताओं की दृष्टि और आकांक्षाओं को भी दर्शाती है। उद्देश्य प्रस्ताव ने भारत के भावी संविधान के लिए कुछ "मूलभूत बातों" को रेखांकित किया, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण यह था कि देश एक "संप्रभु भारतीय गणराज्य" होगा। संविधान निर्माता नव-स्वतंत्र राष्ट्र की एकता और अखंडता के प्रति अत्यधिक चिंतित थे और प्रस्तावना का उद्देश्य भारत को एक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य के रूप में स्थापित करना और सभी भारतीय नागरिकों के लिए न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व सुनिश्चित करना था। जवाहरलाल नेहरू यूरोपीय पुनर्जागरण, अमेरिका की स्वतंत्रता और फ्रांसीसी क्रांति के विचारों से काफी प्रभावित थे, और इन विचारों की झलक संविधान में दिखाई पड़ती है। प्रस्तावना का ऐतिहासिक संदर्भ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और इसके नेताओं, विशेष रूप से जवाहरलाल नेहरू के आदर्शों में गहराई से निहित है। उद्देश्य प्रस्ताव पर मजबूत जोर इस बात का संकेत देता है कि प्रस्तावना स्वतंत्रता संग्राम के लंबे समय से पोषित लक्ष्यों और सिद्धांतों को मूर्त रूप देती है। प्रस्तावना के उद्देश्य न केवल सरकार का एक नया स्वरूप स्थापित करना था, बल्कि न्याय, समानता और बंधुत्व के लिए भारतीय लोगों की मौलिक जरूरतों और आकांक्षाओं को संबोधित करना भी था। फ्रांसीसी क्रांति और यूरोपीय पुनर्जागरण जैसे वैश्विक ऐतिहासिक घटनाओं और विचारधाराओं के प्रभाव ने प्रस्तावना के पीछे की दृष्टि को आकार दिया।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में प्रमुख संशोधन -
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में संशोधन किया गया है। प्रस्तावना में एकमात्र संशोधन 1976 में आपातकाल के दौरान 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से किया गया था। इस संशोधन के तहत प्रस्तावना में तीन नए शब्द जोड़े गए: "समाजवादी," "धर्मनिरपेक्ष," और "अखंडता"। इसके अतिरिक्त, वाक्यांश "राष्ट्र की एकता" को "राष्ट्र की एकता और अखंडता" में संशोधित किया गया। यह संशोधन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार द्वारा किया गया था। 42वें संशोधन को 'मिनी कॉन्स्टीट्यूशन' भी कहा जाता है क्योंकि इसके द्वारा संविधान में कई व्यापक बदलाव किए गए थे। इस संशोधन का उद्देश्य सत्ता को केंद्रीकृत करना और न्यायिक निगरानी को कम करना था, और यह स्वर्ण सिंह कमेटी की सिफारिशों को लागू करने के लिए किया गया था। इन शब्दों को जोड़ने का तर्क देश को धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से विकसित करना था। 42वां संशोधन, प्रस्तावना में एकमात्र संशोधन होने के नाते, एक संवेदनशील राजनीतिक अवधि (आपातकाल) के दौरान हुआ, जिससे इसकी वैधता और उस संदर्भ के बारे में सवाल उठे जिसमें इसे पारित किया गया था। 'समाजवादी,' 'धर्मनिरपेक्ष' और 'अखंडता' को जोड़ने को भारतीय राज्य की प्रकृति और उद्देश्यों को संविधान के मूल दस्तावेज में अधिक स्पष्ट रूप से परिभाषित करने के प्रयास के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है।भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भारतीय संविधान की प्रस्तावना की व्याख्या:
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने समय-समय पर भारतीय संविधान की प्रस्तावना की व्याख्या की है। इस संबंध में तीन महत्वपूर्ण मामले हैं:
बेरुबारी यूनियन मामला (1960): इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने शुरू में कहा कि प्रस्तावना भारतीय संविधान का अभिन्न अंग नहीं है और इसलिए यह कानून की अदालत में लागू करने योग्य नहीं है। हालांकि, न्यायालय ने यह भी कहा कि प्रस्तावना संविधान निर्माताओं के दिमाग की कुंजी है और संविधान के संदिग्ध क्षेत्रों की व्याख्या करने में सहायता कर सकती है। इस मामले में संसद की शक्ति पर भी प्रश्न उठाया गया था कि क्या वह किसी भारतीय क्षेत्र को किसी विदेशी राज्य को दे सकती है। न्यायालय ने कहा कि प्रस्तावना संसद की राष्ट्रीय क्षेत्र के किसी भी हिस्से को सौंपने की शक्ति को प्रतिबंधित नहीं कर सकती है। यह मामला भारत और पाकिस्तान के बीच क्षेत्रीय विवाद से संबंधित था।
केशवानंद भारती मामला (1973): इस ऐतिहासिक मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पहले के फैसले को पलट दिया और माना कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा है। न्यायालय ने 'मूल संरचना सिद्धांत' (Basic Structure Doctrine) प्रतिपादित किया, जिसके अनुसार संसद संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है, लेकिन इसकी मूल संरचना को नहीं बदल सकती। प्रस्तावना को संविधान की व्याख्या में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला माना गया। इस मामले में भूमि सुधार कानूनों को चुनौती दी गई थी। न्यायालय ने माना कि प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों को जोड़ने से संविधान के मौजूदा सिद्धांतों की पुष्टि होती है।
एस.आर. बोम्मई मामला (1994): इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने धर्मनिरपेक्षता को भारतीय संविधान की मूल विशेषता के रूप में दोहराया। इस मामले में अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति शासन) के दुरुपयोग पर भी चर्चा की गई। न्यायालय ने प्रस्तावना में निहित समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के सिद्धांतों में लोगों की आस्था को दोहराया। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है राज्य द्वारा सभी धार्मिक समुदायों का समान व्यवहार। न्यायालय ने कहा कि 'समाजवादी' शब्द कल्याणकारी राज्य होने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
सर्वोच्च न्यायालय की व्याख्याएं प्रस्तावना के महत्व को समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं। बेरुबारी मामले से केशवानंद भारती मामले तक न्यायिक दृष्टिकोण में बदलाव आया, जिसमें प्रस्तावना को गैर-न्यायिक और संविधान के बाहरी हिस्से के रूप में देखने से लेकर इसे एक अभिन्न अंग के रूप में मान्यता देना शामिल है जो संविधान के मूलभूत मूल्यों और भावना को समाहित करता है। केशवानंद भारती मामले में 'मूल संरचना सिद्धांत' का प्रतिपादन भारतीय संवैधानिक कानून पर एक स्थायी प्रभाव डालता है, जो संसदीय संशोधनों द्वारा प्रस्तावना के मूल सिद्धांतों को बदले जाने से बचाता है। एस.आर. बोम्मई मामले ने प्रस्तावना में निहित धर्मनिरपेक्षता जैसे प्रमुख संवैधानिक सिद्धांतों को बनाए रखने में न्यायपालिका की निरंतर भूमिका को उजागर किया है।
भारतीय संविधान में प्रस्तावना का महत्व और भूमिका का विश्लेषण
भारतीय संविधान में प्रस्तावना का महत्व और भूमिका बहुआयामी है। अब इसे संविधान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है। यह संविधान के मूलभूत दर्शन और मूल्यों को समाहित करता है। प्रस्तावना राष्ट्र की पहचान, लोकतांत्रिक लोकाचार और मूलभूत सिद्धांतों का प्रतिबिंब है। यह संविधान का सार है और इसके लक्ष्यों को प्रकट करता है। इसे 'संविधान का परिचय पत्र' भी कहा जाता है।संविधान की व्याख्या और कार्यान्वयन के लिए प्रस्तावना एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करती है। यह विधायी मंशा और नीति को समझने में सहायता करती है। यह संविधान के प्रावधानों की व्याख्या और कार्यान्वयन के लिए एक मार्गदर्शक ढांचा प्रदान करती है। यह अस्पष्ट शब्दों की व्याख्या में मदद करती है।
प्रस्तावना संविधान निर्माताओं के विचारों और राष्ट्र की आकांक्षाओं को दर्शाती है। यह उन आदर्शों और आकांक्षाओं को व्यक्त करती है जिनके लिए देश ने संघर्ष किया। यह भारत के लोकतांत्रिक आदर्शों और आकांक्षाओं का दर्पण है। यह संविधान निर्माताओं के सपनों और विचारों का प्रतिनिधित्व करती है।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि प्रस्तावना गैर-न्यायिक है। यह न तो विधायिका की शक्ति का स्रोत है और न ही उस पर कोई प्रतिबंध लगाती है। इसकी व्यवस्थाओं को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है और यह कानून की अदालत में लागू नहीं है। हालांकि, यह संविधान का मूल्यांकन करने का एक महत्वपूर्ण आधार प्रदान करती है।
प्रस्तावना, हालांकि कानूनी रूप से लागू करने योग्य नहीं है, पूरे संविधान के लिए नैतिक और दार्शनिक आधार के रूप में कार्य करती है। यह संविधान निर्माताओं के विचारों और संविधान के समग्र उद्देश्य को समझने की कुंजी प्रदान करती है। यह संवैधानिक व्याख्या के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण है, खासकर जब संविधान के विशिष्ट प्रावधान अस्पष्ट हों। प्रस्तावना भारतीय लोगों की आकांक्षाओं और आदर्शों को दर्शाती है और उन मूल्यों को समाहित करती है जो राष्ट्र को एकजुट करते हैं। इसका संशोधन और सर्वोच्च न्यायालय की विकसित व्याख्याएं भारतीय राज्य और समाज की गतिशील प्रकृति को दर्शाती हैं।
निष्कर्ष
भारतीय संविधान की प्रस्तावना एक शक्तिशाली और संक्षिप्त दस्तावेज है जो भारत के संवैधानिक ढांचे के मूल मूल्यों और सिद्धांतों को समाहित करता है। यह संविधान के उद्देश्यों, लक्ष्यों और दर्शन का सार प्रस्तुत करता है और भारतीय राज्य के स्वरूप का मार्गदर्शन करता है। प्रस्तावना, हालांकि कानूनी रूप से लागू करने योग्य नहीं है, संविधान की व्याख्या और कार्यान्वयन के लिए एक महत्वपूर्ण मार्गदर्शक के रूप में कार्य करती है, और यह संविधान निर्माताओं के विचारों और राष्ट्र की आकांक्षाओं को दर्शाती है। 42वें संशोधन के माध्यम से इसका एकमात्र संशोधन, और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इसकी समय-समय पर की गई व्याख्याएं, भारतीय संवैधानिक कानून में इसके स्थायी महत्व को रेखांकित करती हैं। प्रस्तावना भारतीय संविधान की आधारशिला बनी हुई है, जो न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आदर्शों को बनाए रखने के लिए राष्ट्र को प्रेरित करती है।
तालिका 2: प्रस्तावना की सर्वोच्च न्यायालय की व्याख्याएँ
अनुच्छेद--1 --
संघ का नाम और राज्य क्षेत्र
अनुच्छेद--2
नए राज्यों का प्रवेश या स्थापना
अनुच्छेद --3
राज्य का निर्माण तथा सीमाओं या नाम में परिवर्तन
अनुच्छेद --4
पहली अनुसूची तथा चौथी अनुसूची के संशोधन तथा दो और तीन का अधीन बनाई गई विधियां
अनुच्छेद - 5
संविधान के प्रारंभ पर नागरिकता
अनुच्छेद - 6
पाकिस्तान से भारत आने वाले कुछ व्यक्तियों के नागरिकता के अधिकार
अनुच्छेद - 7
भारत से पाकिस्तान जाने वालों को कुछ व्यक्तियों के नागरिकता के अधिकार
अनुच्छेद - 8
भारत के बाहर रहने वाले व्यक्तियों के नागरिकता के अधिकार
अनुच्छेद - 9
विदेशी राज्य की नागरिकता स्वेच्छा से लेने पर भारत का नागरिक न होना
अनुच्छेद - 10
नागरिकता के अधिकारों का बना होना
अनुच्छेद - 11
संसद द्वारा नागरिकता के लिए कानून का विनियमन करना
No comments:
Post a Comment