- जापान फिलीपींस व चीन में चलने वाले चक्रवाती तूफान को टाइफून कहते हैं।
- भारत में कर्क रेखा 8 राज्यों से गुजरती है।
- उत्तरी अमेरिका में चलने वाले चक्रवाती तूफान को टॉरनेडो कहते हैं।
- रणथंभौर वन्य जीव अभ्यारण राजस्थान में है।
- कल्याणकारी राज्य की अवधारणा नीति निर्देशक तत्व में सम्मिलित है।
- 26 जनवरी 1950 को भारत एक संप्रभु संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य बना।
- गोंडवाना क्षेत्र कोयले के लिए प्रसिद्ध है यह मध्य प्रदेश में स्थित है।
- राष्ट्रपति शासन में एक राज्य राज्यपाल द्वारा शासित होता है।
- राज्यपाल पद ग्रहण करने से पूर्व उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के सम्मुख अपने पद की शपथ लेता है।
- डायनेमो का आर्मेचर इस्पात का बना होता है।
- सोना का आपेक्षित घनत्व 19.30 है।
- स्टेरेडियन ठोस कार्ड की इकाई है।
- जब इस्पात जैसी धातु को इसकी प्रत्यास्थता सीमा से बढ़कर तन जाता है तो यह प्लास्टिक हो जाता है।
- चंद्रमा पर व्यक्ति का भार पृथ्वी पर के भर का 1/6 गुना होता है।
- महाभाष्य नामक पुस्तक का संबंध व्याकरण से हैं।
- संस्कृत भाषा व्याकरण की प्रथम पुस्तक अष्टाध्याई के लेखक पाणिनि है।
- महमूद गजनवी के भारत आक्रमण के समय उसके साथ आने वाला विद्वान अलबरूनी था।
- 1857 के विद्रोह के दौरान कानपुर में हुए विद्रोह का नेतृत्व नाना साहब ने किया था।
- लखनऊ में 1857 के विद्रोह का नेतृत्व बेगम हजरत महल ने किया था।
- किसी विधानसभा की शक्ति उस राज्य की जनता पर निर्भर करती है।
- ऐसे राज्य जहां द्विसदनीय विधायिका है वहां विधान परिषद को उच्च सदन कहा जाता है।
- किसी धन विधेयक को विधान परिषद अधिकतम 14 दिन तक रोक सकते हैं।
- एक आवेशित खोखले गोलक के अंदर किसी जगह विद्युत क्षेत्र का मन हमेशा शून्य होता है।
- रंगीन टेलीविजन में प्राथमिक रंग लाल हरा एवं नीला रंग का उपयोग किया जाता है।
- नमक हेलाइड खनिज से उत्पन्न होता है।
- व्हाइट हाउस वाशिंगटन में स्थित है यह अमेरिका के राष्ट्रपति का कार्यालय है।
- हिटलर के लिए फ्यूहरर शब्द प्रयुक्त होता है।
- कचारी जनजाति असम राज्य में निवास करती है।
- हड़प्पा सभ्यता एक कांस्य युगीन सभ्यता थी।
- 78 ईस्वी में शक संवत आरंभ हुआ।
Sunday, 13 April 2025
आज का ज्ञान (13-04-2025)
चार_मोमबत्तियां
A Hindi Motivational Story on Peace, Faith Love and Hope
रात का समय था, चारों तरफ सन्नाटा पसरा हुआ था , नज़दीक ही एक कमरे में चार मोमबत्तियां जल रही थीं। एकांत पा कर आज वे एक दुसरे से दिल की बात कर रही थीं।
पहली मोमबत्ती बोली, ” मैं शांति हूँ , पर मुझे लगता है अब इस दुनिया को मेरी ज़रुरत नहीं है , हर तरफ आपाधापी और लूट-मार मची हुई है, मैं यहाँ अब और नहीं रह सकती। …” और ऐसा कहते हुए , कुछ देर में वो मोमबत्ती बुझ गयी।
दूसरी मोमबत्ती बोली , ” मैं विश्वास हूँ , और मुझे लगता है झूठ और फरेब के बीच मेरी भी यहाँ कोई ज़रुरत नहीं है , मैं भी यहाँ से जा रही हूँ …” , और दूसरी मोमबत्ती भी बुझ गयी।
तीसरी मोमबत्ती भी दुखी होते हुए बोली , ” मैं प्रेम हूँ, मेरे पास जलते रहने की ताकत है, पर आज हर कोई इतना व्यस्त है कि मेरे लिए किसी के पास वक्त ही नहीं, दूसरों से तो दूर लोग अपनों से भी प्रेम करना भूलते जा रहे हैं ,मैं ये सब और नहीं सह सकती मैं भी इस दुनिया से जा रही हूँ….” और ऐसा कहते हुए तीसरी मोमबत्ती भी बुझ गयी।
वो अभी बुझी ही थी कि एक मासूम बच्चा उस कमरे में दाखिल हुआ।
मोमबत्तियों को बुझे देख वह घबरा गया , उसकी आँखों से आंसू टपकने लगे और वह रुंआसा होते हुए बोला ,
“अरे , तुम मोमबत्तियां जल क्यों नहीं रही , तुम्हे तो अंत तक जलना है ! तुम इस तरह बीच में हमें कैसे छोड़ के जा सकती हो ?”
तभी चौथी मोमबत्ती बोली , ” प्यारे बच्चे घबराओ नहीं, मैं आशा हूँ और जब तक मैं जल रही हूँ हम बाकी मोमबत्तियों को फिर से जला सकते हैं। “
यह सुन बच्चे की आँखें चमक उठीं, और उसने आशा के बल पे शांति, विश्वास, और प्रेम को फिर से प्रकाशित कर दिया।
मित्रों , जब सबकुछ बुरा होते दिखे ,चारों तरफ अन्धकार ही अन्धकार नज़र आये , अपने भी पराये लगने लगें तो भी उम्मीद मत छोड़िये….आशा मत छोड़िये , क्योंकि इसमें इतनी शक्ति है कि ये हर खोई हुई चीज आपको वापस दिल सकती है। अपनी आशा की मोमबत्ती को जलाये रखिये ,बस अगर ये जलती रहेगी तो आप किसी भी और मोमबत्ती को प्रकाशित कर सकते हैं।
कर्मकार प्रतिकार अधिनियम, 1923: दुर्घटना का नियोजन से संबंध - मुआवज़े की पात्रता की कुंजी
"मात्र दुर्घटना ही किसी कर्मकार को मुआवजा पाने के अधिकारी नहीं बनाती है बल्कि वह दुर्घटना नियोजन के दौरान तथा नियोजन के उद्भूत होनी चाहिए"
कर्मकार प्रतिकार अधिनियम, 1923 (कर्मचारी मुआवजा अधिनियम, 1923) श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए बनाया गया एक महत्वपूर्ण कानून है। इस अधिनियम के तहत, किसी श्रमिक को कार्यस्थल पर दुर्घटना के कारण होने वाली शारीरिक चोट या मृत्यु के लिए मुआवजा प्रदान किया जाता है। हालांकि, यह समझना ज़रूरी है कि सिर्फ दुर्घटना घटित होना ही मुआवज़े का आधार नहीं है। अधिनियम यह स्पष्ट करता है कि मुआवजा पाने के लिए, दुर्घटना का **नियोजन के दौरान** और **नियोजन से उद्भूत** होना भी आवश्यक है।
सरल शब्दों में, इसका अर्थ यह है कि दुर्घटना तब होनी चाहिए जब श्रमिक अपने नियोक्ता के लिए काम कर रहा हो, और दुर्घटना सीधे तौर पर उसके रोजगार के कारण या उसके रोजगार के दौरान होने वाली गतिविधियों से संबंधित होनी चाहिए।
आइये, कुछ निर्णित वादों की मदद से इस सिद्धांत को और अधिक गहराई से समझें:
**1. *सौरष्ट्र साल्ट मैन्युफैक्चरिंग कंपनी बनाम बाई वलु राजा* (AIR 1958 SC 881):** इस मामले में, एक श्रमिक की मृत्यु उसके कार्यस्थल पर हृदयघात के कारण हुई। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि हृदयघात एक स्वाभाविक मृत्यु थी और यह नियोजन के दौरान जरूर हुई, लेकिन यह नियोजन से उद्भूत नहीं हुई थी। इसलिए, मुआवज़े का दावा अस्वीकार कर दिया गया क्योंकि मृतक का कार्य उसके हृदयघात का कारण नहीं बना था।
**इस वाद से सीखने योग्य:** सिर्फ कार्यस्थल पर दुर्घटना होना पर्याप्त नहीं है, बल्कि यह साबित करना ज़रूरी है कि कार्य करने के दौरान होने वाले तनाव या खतरे के कारण वह दुर्घटना हुई।
**2. *मैकेंज़ीज़ (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड बनाम श्रीमती मसूदा खातून* (2004 (3) LLN 157):** इस मामले में, एक श्रमिक को कार्यालय में चाय पीते समय करंट लग गया जिससे उसकी मृत्यु हो गई। अदालत ने माना कि यद्यपि चाय पीना कार्य का प्रत्यक्ष हिस्सा नहीं था, लेकिन यह नियोक्ता द्वारा प्रदान की गई सुविधाओं का एक हिस्सा था और नियोजन के दौरान हुआ था। इसलिए, यह दुर्घटना नियोजन से उद्भूत हुई मानी गई और मुआवजा दिया गया।
**इस वाद से सीखने योग्य:** 'नियोजन से उद्भूत' की परिभाषा में वे गतिविधियां भी शामिल हो सकती हैं जो सीधे तौर पर कार्य से संबंधित नहीं हैं, लेकिन कार्यस्थल पर उपलब्ध सुविधाओं का उपयोग करते समय घटित होती हैं।
**3. *लंकस्टर मोटार कंपनी लिमिटेड बनाम श्रीमती परमात्मा देवी* (AIR 1954 ऑल 195):** इस मामले में, एक ड्राइवर दुर्घटना के समय बस में सो रहा था। अदालत ने माना कि वह ड्यूटी पर था और बस में सोना उसकी ड्यूटी का हिस्सा था, इसलिए दुर्घटना नियोजन के दौरान और नियोजन से उद्भूत हुई।
**इस वाद से सीखने योग्य:** ड्यूटी के दौरान विश्राम भी नियोजन का हिस्सा माना जा सकता है, यदि नियोक्ता द्वारा इसकी अनुमति दी गई हो या यह कार्य की प्रकृति का अभिन्न अंग हो।
**निष्कर्ष:**
कर्मकार प्रतिकार अधिनियम, 1923 श्रमिकों के लिए एक महत्वपूर्ण सुरक्षा कवच है, लेकिन मुआवज़े का दावा तभी सफल होता है जब यह साबित हो जाए कि दुर्घटना न केवल नियोजन के दौरान हुई, बल्कि नियोजन से उद्भूत भी हुई। इन निर्णित वादों से यह स्पष्ट होता है कि 'नियोजन के दौरान' और 'नियोजन से उद्भूत' की व्याख्या परिस्थिति के अनुसार भिन्न हो सकती है, और प्रत्येक मामले की बारीकियों पर ध्यान देना आवश्यक है। यदि कोई श्रमिक दुर्घटना का शिकार होता है, तो उसे यह साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत जुटाने चाहिए कि दुर्घटना उसके कार्य के कारण या कार्यस्थल पर काम करने के दौरान हुई।
कर्मकार प्रतिकार अधिनियम 1923 के अंतर्गत नियोक्ता और संविदा संबंधी प्रावधान
कर्मकार प्रतिकार अधिनियम, 1923 की धारा 2(1)(e) में नियोक्ता को परिभाषित किया गया है। इसके अनुसार, नियोक्ता का अर्थ है:
* **कोई भी व्यक्ति** जो किसी कारखाने, खदान, गोदी, निर्माण स्थल या अन्य परिसर में किसी कर्मचारी को रोजगार देता है, चाहे वह सीधे तौर पर या किसी ठेकेदार के माध्यम से हो।
* **राज्य सरकार**, जब राज्य सरकार द्वारा या उसकी ओर से किसी कार्य को पूरा करने के लिए किसी कर्मचारी को रोजगार दिया जाता है।
* **स्थानीय प्राधिकारी**, जब स्थानीय प्राधिकारी द्वारा या उसकी ओर से किसी कार्य को पूरा करने के लिए किसी कर्मचारी को रोजगार दिया जाता है।
* **ठेकेदार**, जब किसी ठेकेदार द्वारा किसी व्यक्ति को किसी कार्य को पूरा करने के लिए रोजगार दिया जाता है, और यदि नियोक्ता (मुख्य नियोक्ता) ने ठेकेदार को अधिनियम के तहत मुआवजा देने के दायित्व से मुक्त नहीं किया है।
* कानूनी प्रतिनिधि, यदि नियोक्ता मर चुका है।
सरल शब्दों में, नियोक्ता वह व्यक्ति या संस्था है जो किसी कर्मचारी को अपने अधीन काम करने के लिए रखता है और जिसके पास कर्मचारी के काम पर नियंत्रण होता है। यह महत्वपूर्ण है कि नियोक्ता की परिभाषा व्यापक है और इसमें न केवल प्रत्यक्ष नियोक्ता बल्कि ठेकेदार और अन्य मध्यस्थ भी शामिल हैं।
संविदा (Contracting) संबंधी
कर्मकार प्रतिकार अधिनियम 1923 (The Workmen's Compensation Act, 1923) भारत में श्रमिकों के हितों की रक्षा करने और उन्हें काम के दौरान चोट लगने या मृत्यु होने पर मुआवजा प्रदान करने के लिए एक महत्वपूर्ण कानून है। इस अधिनियम के अंतर्गत, संविदा (Contracting) करने से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण प्रावधान हैं जो नियोक्ता (employer) और संविदाकार (contractor) दोनों पर लागू होते हैं। यह सुनिश्चित करते हैं कि श्रमिक अपने अधिकारों से वंचित न रहें और उन्हें उचित मुआवजा मिले।**मुख्य प्रावधान:**
1. **नियोक्ता का दायित्व:** अधिनियम की धारा 12 के अनुसार, जब कोई नियोक्ता अपने व्यवसाय के भाग के रूप में किसी संविदाकार के माध्यम से काम करवाता है, तो वह संविदाकार द्वारा नियोजित कर्मकार को हुए किसी भी नुकसान के लिए उत्तरदायी होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि संविदाकार अपने कर्मकार को मुआवजा देने में असमर्थ है, तो मूल नियोक्ता को मुआवजा देना होगा।
2. **मुआवजे की वसूली:** यदि नियोक्ता ने कर्मकार को मुआवजा दिया है क्योंकि संविदाकार ने मुआवजा देने में विफलता बरती, तो नियोक्ता संविदाकार से उस राशि की वसूली कर सकता है जिसका भुगतान उसने किया है। यह प्रावधान नियोक्ता को यह सुनिश्चित करने के लिए प्रोत्साहित करता है कि संविदाकार अपने दायित्वों का निर्वहन करे।
3. **मुआवजे की गणना:** कर्मकार प्रतिकार अधिनियम के अनुसार, मुआवजे की राशि कर्मकार की मासिक वेतन, चोट की गंभीरता और उम्र जैसे कारकों पर निर्भर करती है। यह अधिनियम स्पष्ट रूप से मुआवजे की गणना के तरीकों को परिभाषित करता है।
4. **संविदाकार की जिम्मेदारी:** संविदाकार यह सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार है कि उनके द्वारा नियोजित कर्मकार अधिनियम के तहत कवर किए जाएं। उन्हें दुर्घटनाओं के लिए मुआवजे का भुगतान करना होगा और दुर्घटना होने पर तुरंत संबंधित अधिकारियों को सूचित करना होगा।
5. **कर्मकार के अधिकार:** कर्मकार को यह जानने का अधिकार है कि उनका नियोक्ता कौन है, भले ही वे किसी संविदाकार के माध्यम से नियोजित हों। उन्हें दुर्घटना होने पर मुआवजे का दावा करने का अधिकार है, चाहे वे स्थायी कर्मचारी हों या संविदा कर्मचारी।
**महत्व:**
ये प्रावधान यह सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण हैं कि संविदा श्रम का उपयोग करते समय श्रमिकों का शोषण न हो। वे नियोक्ता और संविदाकार दोनों को अपने दायित्वों के प्रति जवाबदेह बनाते हैं और कर्मकार को उचित मुआवजा प्राप्त करने का अधिकार सुनिश्चित करते हैं।
कर्मकार प्रतिकार अधिनियम, 1923 की धारा 17 'संविदा द्वारा त्याग' (Contracting Out) से संबंधित है। इस धारा के अनुसार, कोई भी संविदा या समझौता जिसके द्वारा कर्मचारी अधिनियम के तहत प्राप्त होने वाले किसी भी अधिकार को त्यागता है या छोड़ने की कोशिश करता है, वह शून्य (void) होगा। इसका मतलब है कि नियोक्ता और कर्मचारी के बीच ऐसा कोई भी समझौता कानूनी रूप से मान्य नहीं होगा जो कर्मचारी को अधिनियम द्वारा दिए गए लाभों से वंचित करता है।
**महत्वपूर्ण बातें:**
* **अधिकारों का त्याग अवैध:** कोई भी समझौता जो कर्मचारी को चोट लगने या व्यावसायिक रोग होने पर मुआवजे के अधिकार को त्यागने के लिए बाध्य करता है, अवैध है।
* **समझौतों की वैधता:** कर्मचारी और नियोक्ता के बीच आपसी समझौते तभी मान्य होंगे जब वे अधिनियम के प्रावधानों के अनुरूप हों और कर्मचारी के हितों की रक्षा करें।
* **मुआवजे का अधिकार हस्तांतरणीय नहीं:** कर्मचारी का मुआवजे का अधिकार किसी अन्य व्यक्ति को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता।
* **मैसर्स भारत अर्थ मूवर्स लिमिटेड बनाम वी. देवराजू [AIR 1993 SC 2559]:** इस मामले में, उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि कर्मकार प्रतिकार अधिनियम एक कल्याणकारी कानून है और इसका उद्देश्य मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना है। न्यायालय ने कहा कि धारा 17 के तहत संविदा द्वारा त्याग संबंधी प्रावधानों की व्याख्या इस प्रकार की जानी चाहिए कि मजदूरों के हितों की रक्षा हो सके।
* **राजकुमार बनाम क्षेत्रीय भविष्य निधि आयुक्त [2004 (1) LLJ 352 (Raj.)]:** इस मामले में, राजस्थान उच्च न्यायालय ने माना कि यदि कोई कर्मचारी स्वेच्छा से अपने अधिकारों को त्याग देता है, तो भी यह धारा 17 का उल्लंघन होगा यदि इससे अधिनियम के तहत मिलने वाले लाभों से वंचित किया जाता है।
**निष्कर्ष:**
कर्मकार प्रतिकार अधिनियम, 1923 के तहत नियोक्ता की परिभाषा और संविदा संबंधी प्रावधान मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं। धारा 17 यह सुनिश्चित करती है कि नियोक्ता कर्मचारियों को अधिनियम द्वारा प्रदत्त लाभों से वंचित करने के लिए कोई भी समझौता नहीं कर सकते। यह अधिनियम मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने और उनके अधिकारों की रक्षा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। नियोक्ताओं को इस अधिनियम के प्रावधानों का पालन करना चाहिए और सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके कर्मचारियों को कार्यस्थल पर सुरक्षा और उचित मुआवजा मिले।
ग्रेच्युटी भुगतान अधिनियम, 1972: भुगतान के प्रावधान
* कोई भी कर्मचारी जो किसी संगठन में लगातार कम से कम पांच साल तक सेवा कर चुका है, ग्रेच्युटी का हकदार है।
* कर्मचारी की मृत्यु या विकलांगता की स्थिति में पांच साल की सेवा की शर्त लागू नहीं होती है। ऐसे मामलों में, नॉमिनी या कानूनी उत्तराधिकारी ग्रेच्युटी का हकदार होता है।
ग्रेच्युटी की गणना कर्मचारी द्वारा प्राप्त अंतिम आहरित वेतन (Last Drawn Salary) और सेवा में बिताए गए वर्षों के आधार पर की जाती है।
* ग्रेच्युटी की राशि की गणना करने का सूत्र है: **ग्रेच्युटी = (अंतिम आहरित वेतन x सेवा के वर्षों की संख्या x 15) / 26**
* यहाँ, 'अंतिम आहरित वेतन' में मूल वेतन (Basic Salary), महंगाई भत्ता (Dearness Allowance) और कमीशन (यदि कोई हो) शामिल हैं।
* 'सेवा के वर्षों की संख्या' में छह महीने से अधिक के अंश को एक पूर्ण वर्ष माना जाता है।
* ग्रेच्युटी की अधिकतम राशि 20 लाख रुपये तक सीमित है।
* ग्रेच्युटी का भुगतान कर्मचारी की सेवा समाप्ति की तारीख से 30 दिनों के भीतर किया जाना चाहिए।
* यदि नियोक्ता समय पर ग्रेच्युटी का भुगतान करने में विफल रहता है, तो उसे निर्धारित अवधि के बाद साधारण ब्याज का भुगतान करना होगा।
* यदि नियोक्ता किसी कर्मचारी को ग्रेच्युटी का भुगतान करने से इनकार करता है या भुगतान में देरी करता है, तो कर्मचारी सहायक श्रम आयुक्त (Assistant Labour Commissioner) के पास शिकायत दर्ज कर सकता है।
* यदि कर्मचारी का आचरण आपत्तिजनक पाया जाता है, तो नियोक्ता ग्रेच्युटी को आंशिक रूप से या पूरी तरह से जब्त कर सकता है।
* नकद
* चेक
* बैंक ड्राफ्ट
* कर्मचारी के खाते में इलेक्ट्रॉनिक रूप से हस्तांतरण
**निष्कर्ष:**
ग्रेच्युटी भुगतान अधिनियम, 1972 कर्मचारियों के लिए एक महत्वपूर्ण वित्तीय सुरक्षा प्रदान करता है। इस अधिनियम के प्रावधानों को समझकर, कर्मचारी अपने अधिकारों को जान सकते हैं और यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि उन्हें उनकी मेहनत का उचित प्रतिफल मिले। यदि आपको ग्रेच्युटी से संबंधित कोई शिकायत या प्रश्न हैं, तो आप श्रम विभाग से संपर्क कर सकते हैं।
न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948: निर्वाह मजदूरी, उचित मजदूरी और न्यूनतम मजदूरी
अधिनियम के उद्देश्य निम्नलिखित हैं:
- उद्योग में रक्त शोषण का अपवर्जन करना अर्थात यह देखने की भुगतान इतना काम न हो जिससे मजदूर हनी में पड़ जाए।
- मजदूरी किए गए कार्य की मात्रा के समान होनी चाहिए और शोषण नहीं होना चाहिए।
- यह देखना की असंगठित श्रमिक अनुचित सौदे के कारण पीड़ित ना हो और उनके अधिकार रक्षित हो।
- यह देखना की श्रमिक को उचित भुगतान करके हड़ताल तथा तालाबंदी जड़ से उखाड़ दी गई है।
निर्वाह मजदूरी वह मजदूरी है जो एक श्रमिक और उसके परिवार को न केवल बुनियादी जरूरतों (जैसे भोजन, वस्त्र और आवास) को पूरा करने में सक्षम बनाती है, बल्कि स्वास्थ्य, शिक्षा, और मनोरंजन जैसी सामाजिक आवश्यकताओं को भी पूरा करने में मदद करती है। यह एक जीवन जीने के लिए आवश्यक न्यूनतम मानक को सुनिश्चित करती है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 43 में, राज्य को यह निर्देशित किया गया है कि वह श्रमिकों के लिए निर्वाह मजदूरी, काम की मानवीय परिस्थितियां, और सामाजिक और सांस्कृतिक अवसरों को सुनिश्चित करने का प्रयास करे। इसलिए, निर्वाह मजदूरी एक संवैधानिक आवश्यकता है और इसे प्राप्त करने का प्रयास राज्य और नियोजकों दोनों का कर्तव्य है। हालांकि, व्यवहार में, निर्वाह मजदूरी को तत्काल लागू करना हमेशा संभव नहीं होता है, लेकिन यह एक लक्ष्य है जिसे प्राप्त करने की दिशा में लगातार प्रयास किए जाने चाहिए।
उचित मजदूरी निर्वाह मजदूरी से थोड़ी अधिक होती है और इसमें कार्यकर्ता की कुशलता, काम की कठिनाई, जोखिम और जिम्मेदारी जैसे कारकों को ध्यान में रखा जाता है। यह उस उद्योग और क्षेत्र में प्रचलित मजदूरी दरों, और नियोक्ता की भुगतान करने की क्षमता पर भी निर्भर करती है।
उचित मजदूरी का निर्धारण करते समय, नियोजक को उद्योग में प्रचलित वेतनमान, श्रमिकों की उत्पादकता, और अपने व्यवसाय की लाभप्रदता जैसे कारकों को ध्यान में रखना चाहिए। इसका उद्देश्य श्रमिकों को उनके कौशल और प्रयासों के लिए उचित मुआवजा देना है, जबकि नियोक्ता के व्यवसाय की स्थिरता को भी बनाए रखना है।
न्यूनतम मजदूरी वह न्यूनतम राशि है जो एक नियोक्ता को अपने श्रमिकों को कानूनी रूप से भुगतान करनी होती है। यह निर्वाह मजदूरी से कम होती है और इसका उद्देश्य श्रमिकों को शोषण से बचाना और उन्हें एक बुनियादी जीवन स्तर सुनिश्चित करना है।
न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के तहत, प्रत्येक राज्य सरकार को विभिन्न व्यवसायों और उद्योगों के लिए न्यूनतम मजदूरी निर्धारित करने का अधिकार है। यह न्यूनतम मजदूरी समय-समय पर संशोधित की जाती है ताकि बढ़ती हुई जीवन लागत को समायोजित किया जा सके।
न्यूनतम मजदूरी का भुगतान न करना एक आपराधिक कार्य है क्योंकि यह श्रमिकों के मूल अधिकारों का उल्लंघन है। यह श्रमिकों को शोषण के प्रति संवेदनशील बनाता है और उनके जीवन स्तर को नीचे गिराता है।
न्यूनतम मजदूरी का भुगतान न करने के निम्नलिखित परिणाम हो सकते हैं:
* **कानूनी कार्रवाई:** नियोजक पर जुर्माना लगाया जा सकता है या उसे जेल भी हो सकती है।
* **श्रमिकों द्वारा शिकायत:** श्रमिक श्रम न्यायालय में नियोक्ता के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकते हैं।
* **सामाजिक प्रतिष्ठा में कमी:** न्यूनतम मजदूरी का भुगतान न करने वाले नियोक्ताओं को सामाजिक रूप से निंदनीय माना जाता है।
**निष्कर्ष**
न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा करने और उन्हें एक सम्मानजनक जीवन जीने में सक्षम बनाने के लिए एक महत्वपूर्ण कानून है। निर्वाह मजदूरी एक संवैधानिक आवश्यकता है, उचित मजदूरी नियोजक की क्षमता पर निर्भर करती है, लेकिन न्यूनतम मजदूरी का भुगतान न करना एक गंभीर अपराध है। नियोक्ताओं को अपने श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी का भुगतान सुनिश्चित करना चाहिए ताकि उन्हें शोषण से बचाया जा सके और वे एक बेहतर जीवन जी सकें। यह सुनिश्चित करना राज्य और समाज दोनों की जिम्मेदारी है कि श्रमिकों को उनके उचित अधिकार मिलें।
न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948: सामान्य कार्य दिवस के घंटे और ओवरटाइम (अतिकाल) मजदूरी
न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 की धारा 13(1)(a) के अनुसार, उपयुक्त सरकार (केंद्र या राज्य सरकार) किसी भी अधिसूचित रोजगार में लगे श्रमिकों के लिए एक सामान्य कार्य दिवस के घंटों को निर्धारित कर सकती है। यह सुनिश्चित करने का उद्देश्य यह है कि श्रमिकों का अत्यधिक शोषण न हो और उन्हें पर्याप्त आराम मिल सके।
* **अधिकतम सीमा:** आमतौर पर, एक सामान्य कार्य दिवस में काम के घंटों की अधिकतम सीमा 9 घंटे निर्धारित की जाती है जिसमे 1 घंटे का मध्यावकाश होगा। हालांकि, यह सीमा अलग-अलग राज्यों और अलग-अलग उद्योगों के लिए थोड़ी भिन्न हो सकती है।
* **बीच में आराम:** श्रमिकों को काम के बीच में आराम के लिए उपयुक्त समय मिलना चाहिए। आमतौर पर, यह नियम है कि प्रत्येक 5-6 घंटे के काम के बाद कम से कम आधा घंटे का ब्रेक दिया जाना चाहिए।
* **सप्ताहिक अवकाश:** प्रत्येक सप्ताह में एक दिन श्रमिकों को आराम के लिए छुट्टी मिलनी चाहिए। यह नियम भी राज्य सरकार द्वारा निर्धारित किया जाता है।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि ये नियम अनिवार्य हैं और नियोक्ता को इनका पालन करना आवश्यक है। यदि कोई नियोक्ता इन नियमों का उल्लंघन करता है, तो उस पर जुर्माना लगाया जा सकता है या अन्य कानूनी कार्यवाही की जा सकती है।
अतिकाल, जैसा कि नाम से पता चलता है, सामान्य कार्य दिवस से अधिक समय तक काम करने को संदर्भित करता है। न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 की धारा 14 के अनुसार, यदि कोई श्रमिक सामान्य कार्य दिवस से अधिक समय तक काम करता है, तो उसे ओवरटाइम के लिए अतिरिक्त मजदूरी का हकदार है।
* **अतिकाल दर:** ओवरटाइम के लिए मजदूरी की दर आमतौर पर सामान्य मजदूरी दर से दोगुनी होती है। यानी, यदि किसी श्रमिक की सामान्य मजदूरी दर ₹100 प्रति घंटा है, तो ओवरटाइम के लिए उसे ₹200 प्रति घंटा मिलना चाहिए।
* **गणना:** ओवरटाइम की गणना घंटे के आधार पर की जाती है। मान लीजिए, किसी श्रमिक का सामान्य कार्य दिवस 8 घंटे का है, और वह 10 घंटे काम करता है, तो उसे 2 घंटे के ओवरटाइम के लिए अतिरिक्त मजदूरी मिलेगी।
* **अतिकाल की सीमा:** कुछ मामलों में, सरकार ओवरटाइम की सीमा भी निर्धारित कर सकती है। यह सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है कि श्रमिकों पर अत्यधिक काम का बोझ न पड़े।
**महत्वपूर्ण बातें:**
* यह सुनिश्चित करना नियोक्ता की जिम्मेदारी है कि श्रमिकों को ओवरटाइम का भुगतान सही ढंग से किया जाए।
* श्रमिकों को भी अपने अधिकारों के बारे में जागरूक होना चाहिए और यदि उन्हें लगता है कि उनके साथ अन्याय हो रहा है, तो उन्हें श्रम विभाग में शिकायत दर्ज करनी चाहिए।
* न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 एक गतिशील कानून है, और समय-समय पर इसमें संशोधन होते रहते हैं।
**निष्कर्ष:**
न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कानून है। यह अधिनियम सुनिश्चित करता है कि श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी मिले और उन्हें काम करने की उचित परिस्थितियां मिलें। सामान्य कार्य दिवस के घंटों और ओवरटाइम मजदूरी के बारे में नियमों का ज्ञान श्रमिकों को अपने अधिकारों की रक्षा करने में मदद करता है।
मजदूरी: अर्थ, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948 और अधिकार क्षेत्र
सरल शब्दों में, मजदूरी उस पारिश्रमिक को कहा जाता है जो एक कर्मचारी को उसके द्वारा किए गए काम के बदले में दिया जाता है। यह नकद, वस्तु या किसी अन्य रूप में हो सकता है। मजदूरी में मूल वेतन, महंगाई भत्ता, आवास भत्ता, और अन्य लाभ शामिल हो सकते हैं, जो कर्मचारी को नियोक्ता द्वारा प्रदान किए जाते हैं।
न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 भारत सरकार द्वारा पारित एक महत्वपूर्ण श्रम कानून है। इसका उद्देश्य कर्मचारियों को न्यूनतम मजदूरी सुनिश्चित करना है, ताकि वे सम्मानजनक जीवन जी सकें। यह अधिनियम विभिन्न उद्योगों और व्यवसायों में काम करने वाले कुशल, अकुशल, और अर्ध-कुशल श्रमिकों के लिए न्यूनतम मजदूरी निर्धारित करता है।
**प्राधिकारी की शक्तियां**
इस अधिनियम के अंतर्गत नियुक्त प्राधिकारी के पास निम्नलिखित शक्तियां होती हैं:
* **जांच करना:** प्राधिकारी किसी भी प्रतिष्ठान में जाकर मजदूरी रिकॉर्ड की जांच कर सकता है और नियोक्ता से जानकारी मांग सकता है।
* **गवाहों को बुलाना:** प्राधिकारी किसी भी व्यक्ति को गवाही देने के लिए बुला सकता है और दस्तावेजों को प्रस्तुत करने का आदेश दे सकता है।
* **आदेश जारी करना:** यदि प्राधिकारी को लगता है कि नियोक्ता ने न्यूनतम मजदूरी अधिनियम का उल्लंघन किया है, तो वह नियोक्ता को उचित मजदूरी का भुगतान करने का आदेश जारी कर सकता है।
* **जुर्माना लगाना:** अधिनियम के उल्लंघन के मामले में, प्राधिकारी नियोक्ता पर जुर्माना भी लगा सकता है।
यदि किसी कर्मचारी को लगता है कि उसे न्यूनतम मजदूरी से कम भुगतान किया जा रहा है, तो वह प्राधिकारी के समक्ष दावा दायर कर सकता है। दावे की सुनवाई के दौरान, प्राधिकारी नियोक्ता और कर्मचारी दोनों को अपनी बात रखने का अवसर देता है।
**दावे की सुनवाई की प्रक्रिया में निम्नलिखित चरण शामिल होते हैं:**
1. **दावा दायर करना:** कर्मचारी निर्धारित प्रपत्र में प्राधिकारी के समक्ष दावा दायर करता है।
2. **नोटिस जारी करना:** प्राधिकारी नियोक्ता को नोटिस जारी करता है और उसे निर्धारित तिथि पर अपना जवाब दाखिल करने का निर्देश देता है।
3. **सुनवाई:** प्राधिकारी नियोक्ता और कर्मचारी दोनों की बात सुनता है और दस्तावेजों की जांच करता है।
4. **निर्णय:** सुनवाई के बाद, प्राधिकारी अपना निर्णय सुनाता है। यदि प्राधिकारी को लगता है कि कर्मचारी का दावा सही है, तो वह नियोक्ता को उचित मजदूरी का भुगतान करने का आदेश देता है।
**निष्कर्ष**
न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कानून है। यह सुनिश्चित करता है कि उन्हें कम से कम इतनी मजदूरी मिले जिससे वे सम्मानजनक जीवन जी सकें। अधिनियम के अंतर्गत नियुक्त प्राधिकारी यह सुनिश्चित करते हैं कि इस कानून का प्रभावी कार्यान्वयन हो और कर्मचारियों के दावों की उचित सुनवाई हो। यह महत्वपूर्ण है कि कर्मचारी अपने अधिकारों के बारे में जागरूक रहें और यदि उन्हें लगता है कि उनके साथ अन्याय हो रहा है, तो वे प्राधिकारी के समक्ष दावा दायर करने से न हिचकिचाएं।
मजदूरी भुगतान अधिनियम, 1936: मजदूरी काल, उत्तरदायित्व और भुगतान समय
मजदूरी काल वह अवधि है जिसके लिए एक कर्मचारी को उसकी मजदूरी का भुगतान किया जाता है। अधिनियम के अनुसार, मजदूरी काल **एक महीने से अधिक नहीं** होना चाहिए। नियोक्ता को यह सुनिश्चित करना होगा कि कर्मचारियों को मासिक आधार पर या उससे कम अवधि के अंतराल पर उनकी मजदूरी का भुगतान किया जाए। इससे कर्मचारियों को अपनी वित्तीय योजना बनाने और अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने में मदद मिलती है।
* **नियोक्ता:** यह व्यक्ति या कंपनी होती है जो कर्मचारियों को काम पर रखती है। नियोक्ता को यह सुनिश्चित करना होता है कि सभी कर्मचारियों को समय पर और सही तरीके से मजदूरी का भुगतान किया जाए।
* **प्रबंधक:** यदि नियोक्ता कोई कंपनी है, तो प्रबंधक (Manager) मजदूरी भुगतान के लिए उत्तरदाई होता है।
* **ठेकेदार:** यदि कर्मचारी ठेकेदार के माध्यम से काम कर रहे हैं, तो ठेकेदार मजदूरी भुगतान के लिए उत्तरदाई होता है।
इनके अलावा, अधिनियम यह भी निर्दिष्ट करता है कि यदि नियोक्ता अपनी जिम्मेदारी से बचने की कोशिश करता है, तो उस पर कानूनी कार्रवाई की जा सकती है।
मजदूरी भुगतान अधिनियम, 1936 के अनुसार, निम्नलिखित समय सीमा के भीतर मजदूरी का भुगतान किया जाना चाहिए:
* **यदि कर्मचारियों की संख्या 1,000 से कम है:** मजदूरी काल समाप्त होने के बाद **7 दिनों के भीतर** मजदूरी का भुगतान किया जाना चाहिए।
* **यदि कर्मचारियों की संख्या 1,000 से अधिक है:** मजदूरी काल समाप्त होने के बाद **10 दिनों के भीतर** मजदूरी का भुगतान किया जाना चाहिए।
यदि कर्मचारी को नौकरी से निकाल दिया जाता है, तो उसकी मजदूरी का भुगतान उसे नौकरी छोड़ने के **दूसरे कार्य दिवस** पर कर दिया जाना चाहिए।
**अतिरिक्त जानकारी:**
* अधिनियम यह भी निर्धारित करता है कि मजदूरी का भुगतान या तो नकद में किया जाना चाहिए या बैंक खाते में जमा किया जाना चाहिए।
* नियोक्ता को कर्मचारियों को मजदूरी पर्ची (Wage Slip) देनी चाहिए जिसमें भुगतान की गई राशि, कटौती और अन्य प्रासंगिक जानकारी शामिल हो।
* कर्मचारी अपनी मजदूरी से संबंधित किसी भी विवाद की स्थिति में श्रम विभाग में शिकायत दर्ज करा सकते हैं।
मजदूरी भुगतान अधिनियम, 1936 कर्मचारियों के अधिकारों की रक्षा करने और उन्हें समय पर मजदूरी का भुगतान सुनिश्चित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह आवश्यक है कि नियोक्ता और कर्मचारी दोनों इस अधिनियम के प्रावधानों को समझें और उनका पालन करें। यह एक निष्पक्ष और न्यायसंगत कार्य वातावरण बनाने में मदद करता है।
मजदूरी भुगतान अधिनियम, 1936 की धारा २ (६) में मजदूरी की व्याख्या
मजदूरी भुगतान अधिनियम, 1936 (Payment of Wages Act, 1936) भारत में श्रमिकों को समय पर और सही तरीके से उनकी मजदूरी का भुगतान सुनिश्चित करने के लिए बनाया गया एक महत्वपूर्ण कानून है। इस कानून को समझने के लिए, "मजदूरी" शब्द की परिभाषा को समझना अत्यंत आवश्यक है। यह परिभाषा अधिनियम की धारा २ (६) में दी गई है। आइये, इस परिभाषा को विस्तार से समझते हैं:
**धारा २ (६) के अनुसार "मजदूरी" क्या है?**
मजदूरी भुगतान अधिनियम, 1936 की धारा २ (६) में "मजदूरी" को इस प्रकार परिभाषित किया गया है:
"मजदूरी का अर्थ है कोई भी मुआवजा (चाहे वह वेतन, भत्ते या अन्यथा हो) जो नियोजन की शर्तों को पूरा करने के लिए किए गए काम के लिए रोजगार में किसी व्यक्ति को भुगतान योग्य है और इसमें शामिल है -
(a) कोई भी अतिरिक्त पारिश्रमिक जो किसी समझौते की शर्तों के तहत या तो रोजगार के संविदा के अनुसार या अन्यथा भुगतान योग्य हो;
(b) किसी भी पुरस्कार, पुरस्कार या लाभ का मौद्रिक मूल्य;
(c) कोई भी धनराशि जो रोजगार के समाप्त होने पर रोजगार के नियमों और शर्तों के तहत भुगतान योग्य हो;
(d) कोई भी राशि जो किसी व्यक्ति को उसके द्वारा किए गए काम के लिए प्रतिपूर्ति के रूप में भुगतान योग्य हो, और जिसमें यात्रा भत्ता भी शामिल है।
**सरल शब्दों में, मजदूरी वह है जो एक कर्मचारी को उसके काम के बदले में मिलती है।** इसमें न केवल मूल वेतन शामिल है, बल्कि भत्ते, ओवरटाइम, बोनस और अन्य लाभ भी शामिल हो सकते हैं जो काम के बदले में दिए जाते हैं।
**मजदूरी में क्या शामिल नहीं है?**
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि धारा २ (६) में कुछ ऐसी चीजें भी बताई गई हैं जो मजदूरी में शामिल नहीं हैं। ये हैं:
* **नियोक्ता द्वारा दिए गए आवास, प्रकाश, पानी, चिकित्सा उपस्थिति या अन्य सुविधाओं का मूल्य;** उदाहरण के लिए, यदि नियोक्ता कर्मचारी को रहने के लिए आवास प्रदान करता है, तो उस आवास का मूल्य मजदूरी का हिस्सा नहीं माना जाएगा।
* **नियोक्ता द्वारा पेंशन निधि या भविष्य निधि में किया गया योगदान;** कर्मचारी भविष्य निधि (EPF) या पेंशन योजनाओं में नियोक्ता का योगदान मजदूरी का हिस्सा नहीं है।
* **कर्मचारी द्वारा किए गए खर्चों को पूरा करने के लिए दिया गया यात्रा भत्ता;** यदि कर्मचारी आधिकारिक काम के लिए यात्रा करता है और नियोक्ता उसे यात्रा भत्ता देता है, तो वह मजदूरी का हिस्सा नहीं है।
* **नियोक्ता द्वारा दी गई कोई भी ग्रेच्युटी:** ग्रेच्युटी मजदूरी का हिस्सा नहीं है।
**इस परिभाषा का महत्व:**
मजदूरी की यह परिभाषा महत्वपूर्ण है क्योंकि यह निर्धारित करती है कि मजदूरी भुगतान अधिनियम, 1936 के प्रावधान किस प्रकार लागू होते हैं। उदाहरण के लिए, नियोक्ता को यह सुनिश्चित करना होता है कि मजदूरी का भुगतान अधिनियम के तहत निर्धारित समय सीमा के भीतर किया जाए। यदि मजदूरी का भुगतान समय पर नहीं किया जाता है, तो कर्मचारी नियोक्ता के खिलाफ कानूनी कार्रवाई कर सकता है।
**निष्कर्ष:**
मजदूरी भुगतान अधिनियम, 1936 की धारा २ (६) में दी गई मजदूरी की परिभाषा को समझना, श्रमिकों और नियोक्ताओं दोनों के लिए महत्वपूर्ण है। यह सुनिश्चित करता है कि श्रमिकों को उनके काम के लिए उचित और समय पर मुआवजा मिले, और नियोक्ताओं को कानून का अनुपालन करने में मदद मिलती है।
उम्मीद है, यह जानकारी आपको मजदूरी भुगतान अधिनियम, 1936 की धारा २ (६) को समझने में मददगार साबित होगी। यदि आपके कोई और प्रश्न हैं, तो कृपया कानूनी सलाह लेने में संकोच न करें।
मजदूरी भुगतान अधिनियम १९३६ को पारित करने का उद्देश्य, मजदूरी भुगतान का समय, कटौतिया जो मजदूरी में की जा सकती है.
मजदूरी भुगतान अधिनियम, 1936: उद्देश्य और महत्वपूर्ण प्रावधान
मजदूरी भुगतान अधिनियम, 1936 भारत में श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कानून है। यह अधिनियम यह सुनिश्चित करने के उद्देश्य से बनाया गया था कि श्रमिकों को उनकी मजदूरी समय पर और बिना किसी अनुचित कटौती के मिले। औपनिवेशिक भारत में, श्रमिकों को अक्सर मजदूरी के भुगतान में देरी, मनमानी कटौतियों और अन्य शोषणकारी प्रथाओं का सामना करना पड़ता था। इसलिए, इस अधिनियम को पारित करने का मुख्य उद्देश्य श्रमिकों को इन अन्यायपूर्ण प्रथाओं से बचाना था।
इस अधिनियम के प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार हैं
- मजदूरी का एक विशेष रूप से भुगतान किया जाएगा
- मजदूरी का भुगतान एक नियमित मध्यांतर पर किया जाएगा
- मजदूरी की रकम में से कोई अनाधिकृत कटौती न की जाएगी
इस अधिनियम के अंतर्गत कुछ महत्वपूर्ण प्रावधान हैं:
**1. मजदूरी भुगतान का समय:**
अधिनियम मजदूरी भुगतान के समय को स्पष्ट रूप से निर्धारित करता है। इसका अर्थ है कि नियोक्ता को निश्चित समय-सीमा के भीतर श्रमिकों को उनकी मजदूरी का भुगतान करना आवश्यक है।
* **1000 से कम कर्मचारी:** यदि किसी प्रतिष्ठान में 1000 से कम कर्मचारी हैं, तो मजदूरी का भुगतान मजदूरी अवधि समाप्त होने के बाद 7 दिनों के भीतर किया जाना चाहिए।
* **1000 या अधिक कर्मचारी:** यदि किसी प्रतिष्ठान में 1000 या उससे अधिक कर्मचारी हैं, तो मजदूरी का भुगतान मजदूरी अवधि समाप्त होने के बाद 10 दिनों के भीतर किया जाना चाहिए।
यह समय सीमा यह सुनिश्चित करती है कि श्रमिकों को बिना किसी अनुचित देरी के अपनी मेहनत का फल मिले और वे अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा कर सकें।
**2. कटौतियां जो मजदूरी में की जा सकती हैं:**
अधिनियम मजदूरी से की जा सकने वाली कटौतियों की एक निश्चित सूची प्रदान करता है। नियोक्ता श्रमिकों की मजदूरी से मनमाने ढंग से कटौती नहीं कर सकते। अधिनियम के अनुसार, केवल निम्नलिखित प्रकार की कटौतियां ही वैध मानी जाएंगी:
* **जुर्माना:** यदि श्रमिक ने कोई नियम तोड़ा है, तो उस पर जुर्माना लगाया जा सकता है, लेकिन यह जुर्माना अधिनियम में निर्धारित सीमाओं के भीतर होना चाहिए।
* **अनुपस्थिति:** यदि श्रमिक बिना किसी उचित कारण के काम से अनुपस्थित रहता है, तो उस अवधि की मजदूरी काटी जा सकती है।
* **क्षति या हानि:** यदि श्रमिक की लापरवाही के कारण कंपनी को कोई नुकसान होता है, तो उस नुकसान की भरपाई के लिए मजदूरी से कटौती की जा सकती है।
* **आवास और अन्य सुविधाएं:** नियोक्ता आवास, पानी, बिजली जैसी सुविधाओं के लिए मजदूरी से कटौती कर सकते हैं, यदि श्रमिक इन सुविधाओं का उपयोग करते हैं।
* **अग्रिम राशि की वसूली:** यदि श्रमिक ने नियोक्ता से कोई अग्रिम राशि ली है, तो उसे धीरे-धीरे मजदूरी से काटा जा सकता है।
* **आयकर, भविष्य निधि (Provident Fund) और अन्य वैधानिक कटौतियां:** सरकार द्वारा अनिवार्य कटौतियां, जैसे आयकर या भविष्य निधि में योगदान, मजदूरी से काटा जा सकता है।
* **सहकारी समितियों को भुगतान:** यदि श्रमिक किसी सहकारी समिति के सदस्य हैं, तो सदस्यता शुल्क या ऋण की वसूली के लिए मजदूरी से कटौती की जा सकती है।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि ये कटौतियां अधिनियम में निर्धारित नियमों और शर्तों के अधीन होनी चाहिए। नियोक्ता को कटौती करने से पहले श्रमिक को सूचित करना होगा और कटौती का कारण बताना होगा। इसके अलावा, अधिनियम यह भी सुनिश्चित करता है कि कटौतियों की राशि इतनी अधिक न हो कि श्रमिक की न्यूनतम मजदूरी प्रभावित हो।
**निष्कर्ष:**
मजदूरी भुगतान अधिनियम, 1936 श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा करने और उन्हें शोषण से बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह अधिनियम मजदूरी भुगतान के समय और मजदूरी में की जा सकने वाली कटौतियों को विनियमित करके श्रमिकों को एक निश्चित स्तर की सुरक्षा प्रदान करता है। हालांकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि समय के साथ, इस अधिनियम में संशोधन किए गए हैं और आधुनिक श्रम कानूनों में कई और सुरक्षा उपाय शामिल किए गए हैं। फिर भी, यह अधिनियम आज भी श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण आधार बना हुआ है।
लालन-पालन विश्राम
प्रसूति एवं प्रसव सुविधा अधिनियम (Maternity Benefit Act), 1961 के अंतर्गत महिलाओं को मातृत्व लाभ प्रदान किए जाते हैं ताकि वे गर्भावस्था, प्रसव और शिशु के पालन-पोषण के दौरान आर्थिक और शारीरिक रूप से सुरक्षित रहें।
लालन-पालन विश्राम (Nursing Breaks) के बारे में:
इस अधिनियम के तहत कार्यरत माताओं को शिशु के लालन-पालन के लिए विश्राम (breaks) की सुविधा दी जाती है।
मुख्य बिंदु:
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स्तनपान अवकाश (Nursing Breaks):
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अधिनियम के अनुसार, प्रसव के बाद, महिला कर्मचारी को बच्चे के एक वर्ष का होने तक कार्य समय के दौरान दो बार स्तनपान के लिए विश्राम (nursing breaks) लेने की अनुमति होती है।
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ये विश्राम उसके नियमित विश्राम/ब्रेक के अतिरिक्त होते हैं।
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इसका उद्देश्य शिशु के पोषण और माँ के स्वास्थ्य की सुरक्षा है।
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विश्राम की अवधि:
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ब्रेक की अवधि स्पष्ट रूप से अधिनियम में नहीं बताई गई है, लेकिन यह सामान्य रूप से 20 से 30 मिनट प्रति ब्रेक मानी जाती है (कभी-कभी कार्यालय नीति के अनुसार तय होती है)।
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भुगतान की सुविधा:
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इन ब्रेक्स के दौरान महिला को पूर्ण वेतन दिया जाता है, अर्थात ये ब्रेक पेड होते हैं।
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कवर होने वाले संस्थान:
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जहां 10 या अधिक कर्मचारी कार्यरत हैं, वहाँ यह अधिनियम लागू होता है (कुछ राज्यों में यह सीमा भिन्न हो सकती है)।
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