Saturday, 10 May 2025

पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, १९८६ की धारा ३ के तहत केंद्रीय सरकार की शक्तियां: एक विस्तृत अवलोकन

पर्यावरण संरक्षण आज वैश्विक स्तर पर एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। भारत में भी इस दिशा में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं, जिनमें से एक प्रमुख मील का पत्थर है **पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, १९८६ (EPA, 1986)**। यह अधिनियम पर्यावरण की सुरक्षा और उसमें सुधार के लिए कानूनी ढांचा प्रदान करता है। इस अधिनियम की **धारा ३** विशेष रूप से केंद्रीय सरकार को पर्यावरण संरक्षण और सुधार के लिए व्यापक शक्तियां प्रदान करती है।

**धारा ३ का महत्व:**

धारा ३ पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, १९८६ का एक केंद्रीय उपबंध है। यह धारा केंद्रीय सरकार को पर्यावरण की रक्षा, सुरक्षा, सुधार और गुणवत्ता बनाए रखने के लिए आवश्यक सभी उपाय करने का अधिकार देती है। इन उपायों में किसी भी व्यक्ति, संगठन या प्राधिकरण के लिए निर्देश जारी करना शामिल है, चाहे वह सरकारी हो या निजी। यह धारा केंद्रीय सरकार को एक नियामक और प्रवर्तन निकाय के रूप में सशक्त बनाती है, जो पर्यावरण के मुद्दों को संबोधित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

**धारा ३ के तहत केंद्रीय सरकार की मुख्य शक्तियां:**

धारा ३ केंद्रीय सरकार को कई प्रकार की शक्तियां प्रदान करती है। इनमें से कुछ प्रमुख शक्तियां निम्नलिखित हैं:

* **देशव्यापी पर्यावरण संरक्षण कार्यक्रम बनाना और उनका कार्यान्वयन:** केंद्रीय सरकार पर्यावरण की सुरक्षा और सुधार के लिए राष्ट्रव्यापी योजनाएं और कार्यक्रम तैयार कर सकती है और उनका कार्यान्वयन कर सकती है। इसमें विभिन्न पर्यावरणीय समस्याओं जैसे प्रदूषण नियंत्रण, जैव विविधता संरक्षण, अपशिष्ट प्रबंधन आदि से निपटने के लिए नीतियां और रणनीतियां शामिल हो सकती हैं।


* **विभिन्न प्राधिकरणों के कार्यों का समन्वय:** पर्यावरण संरक्षण के प्रयास अक्सर कई मंत्रालयों, विभागों और राज्य सरकारों के बीच समन्वय की आवश्यकता होती है। धारा ३ केंद्रीय सरकार को इन विभिन्न प्राधिकरणों के कार्यों का समन्वय करने का अधिकार देती है, ताकि एक एकीकृत और प्रभावी दृष्टिकोण अपनाया जा सके।


* **पर्यावरणीय प्रदूषण के मानक निर्धारित करना:** केंद्रीय सरकार विभिन्न प्रकार के प्रदूषकों के लिए उत्सर्जन और निर्वहन के मानक निर्धारित कर सकती है। यह उद्योगों, वाहनों और अन्य स्रोतों से होने वाले प्रदूषण को नियंत्रित करने में मदद करता है।


* **उद्योगों और संचालन के लिए नियम बनाना:** केंद्रीय सरकार उद्योगों, प्रक्रियाओं और संचालन के लिए नियम और दिशानिर्देश बना सकती है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे पर्यावरण को कम से कम नुकसान पहुंचाएं। इसमें खतरनाक पदार्थों का प्रबंधन, अपशिष्ट उपचार और संसाधन दक्षता जैसे पहलुओं को शामिल किया जा सकता है।


* **पर्यावरणीय प्रदूषण के क्षेत्रों को प्रतिबंधित करना:** केंद्रीय सरकार उन क्षेत्रों को निर्दिष्ट कर सकती है जहां कुछ प्रकार के उद्योग या संचालन प्रतिबंधित या विनियमित हैं ताकि इन क्षेत्रों में पर्यावरणीय गुणवत्ता को बनाए रखा जा सके।


* **प्रयोगशालाएं स्थापित करना और मान्यता देना:** पर्यावरण प्रदूषण के नमूनों के विश्लेषण और परीक्षण के लिए केंद्रीय सरकार प्रयोगशालाएं स्थापित कर सकती है या मौजूदा प्रयोगशालाओं को मान्यता दे सकती है। यह पर्यावरण प्रदूषण की निगरानी और नियंत्रण के लिए आवश्यक वैज्ञानिक डेटा प्रदान करता है।


* **पर्यावरण प्रदूषण के कारणों और रोकथाम के लिए अनुसंधान:** केंद्रीय सरकार पर्यावरण प्रदूषण के कारणों, प्रकृति और सीमा पर अनुसंधान को प्रोत्साहित कर सकती है और उसके लिए वित्तीय सहायता प्रदान कर सकती है। यह पर्यावरण संबंधी समस्याओं के समाधान खोजने में मदद करता है।
* **जानकारी एकत्र करना और प्रसारित करना:** केंद्रीय सरकार पर्यावरण प्रदूषण से संबंधित जानकारी एकत्र कर सकती है और उसे प्रसारित कर सकती है। यह जागरूकता बढ़ाने और जनता को पर्यावरणीय मुद्दों के बारे में सूचित करने में मदद करता है।


* **अधिकारियों की नियुक्ति:** धारा ३ के तहत अपने कार्यों को प्रभावी ढंग से करने के लिए केंद्रीय सरकार आवश्यक अधिकारियों की नियुक्ति कर सकती है और उन्हें शक्तियां सौंप सकती है।

**धारा ३ के कार्यान्वयन का महत्व:**

धारा ३ के तहत केंद्रीय सरकार की शक्तियों का प्रभावी कार्यान्वयन भारत में पर्यावरण संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण है। इन शक्तियों का उपयोग करके, 

केंद्रीय सरकार:

* **प्रदूषण को नियंत्रित कर सकती है:** मानकों और नियमों को लागू करके, केंद्रीय सरकार विभिन्न स्रोतों से होने वाले प्रदूषण को कम करने में मदद कर सकती है।


* **प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा कर सकती है:** पर्यावरण संरक्षण उपायों को लागू करके, केंद्रीय सरकार वन, वन्यजीव, जल संसाधन और अन्य प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा कर सकती है।


* **पर्यावरण की गुणवत्ता में सुधार कर सकती है:** समग्र पर्यावरणीय गुणवत्ता में सुधार के लिए केंद्रीय सरकार विभिन्न कार्यक्रम और नीतियां लागू कर सकती है।


* **सतत विकास को बढ़ावा दे सकती है:** पर्यावरण संरक्षण के प्रयासों को आर्थिक विकास के साथ एकीकृत करके, केंद्रीय सरकार सतत विकास को बढ़ावा दे सकती है।

**निष्कर्ष:**

पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, १९८६ की धारा ३ केंद्रीय सरकार को पर्यावरण संरक्षण और उसमें सुधार के लिए एक मजबूत कानूनी आधार प्रदान करती है। इन व्यापक शक्तियों का उपयोग करके, केंद्रीय सरकार भारत में पर्यावरण की सुरक्षा और गुणवत्ता बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इन शक्तियों का प्रभावी और पारदर्शी उपयोग भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक स्वस्थ और टिकाऊ पर्यावरण सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह आवश्यक है कि केंद्रीय सरकार इन शक्तियों का जिम्मेदारी से और जनता के सर्वोत्तम हित में उपयोग करे।

राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम, २०१०: अपील और दंड संबंधी प्रावधान

राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) अधिनियम, २०१०, भारत में पर्यावरण संरक्षण और उससे संबंधित मामलों के निपटान के लिए एक महत्वपूर्ण कानूनी ढांचा प्रदान करता है। यह अधिनियम न केवल पर्यावरणीय विवादों के शीघ्र और प्रभावी समाधान के लिए तंत्र स्थापित करता है, बल्कि इसमें पारित आदेशों के अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए अपील और दंड संबंधी विशिष्ट प्रावधान भी शामिल हैं। 


**अपील संबंधी प्रावधान:**

एनजीटी अधिनियम की धारा २२ के अनुसार, अधिकरण द्वारा पारित किसी भी आदेश या निर्णय के विरुद्ध भारत के **उच्चतम न्यायालय** में अपील की जा सकती है। यह महत्वपूर्ण है कि एनजीटी द्वारा पारित अंतिम आदेश के **९० दिनों** के भीतर उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की जानी चाहिए। हालांकि, उच्चतम न्यायालय यदि संतुष्ट है कि अपीलार्थी निर्धारित समय सीमा के भीतर अपील दायर करने में सक्षम नहीं था, तो वह ९० दिनों के बाद भी अपील स्वीकार कर सकता है।

यह अपील का अधिकार उन व्यक्तियों या संस्थाओं को प्रदान किया गया है जो एनजीटी के आदेश या निर्णय से व्यथित हैं। इसका अर्थ है कि यदि कोई व्यक्ति, कंपनी, सरकारी विभाग या कोई अन्य संस्था एनजीटी द्वारा पारित आदेश से असंतुष्ट है, तो उन्हें उच्चतम न्यायालय में अपील करने का कानूनी अधिकार प्राप्त है।

अपील प्रक्रिया यह सुनिश्चित करती है कि एनजीटी द्वारा पारित आदेशों की वैधता और निष्पक्षता की समीक्षा की जा सके, और यदि आवश्यक हो, तो न्यायपालिका के सर्वोच्च स्तर पर सुधार किया जा सके। यह एक महत्वपूर्ण जांच और संतुलन तंत्र प्रदान करता है।

**दंड संबंधी प्रावधान:**

एनजीटी अधिनियम के तहत पारित आदेशों और निर्देशों का पालन न करना एक गंभीर अपराध माना जाता है और इसके लिए कठोर दंड का प्रावधान है। अधिनियम की धारा २६ उन दंडों का विवरण देती है जो एनजीटी के आदेशों का अनुपालन न करने पर लागू होते हैं।

* **व्यक्तियों के लिए दंड:** यदि कोई व्यक्ति एनजीटी द्वारा पारित किसी भी आदेश, निर्णय या पुरस्कार का पालन करने में विफल रहता है, तो उसे **तीन साल तक के कारावास** या **दस करोड़ रुपये तक के जुर्माने** से दंडित किया जा सकता है, या दोनों से दंडित किया जा सकता है।
* **कंपनियों के लिए दंड:** यदि कोई कंपनी एनजीटी द्वारा पारित किसी भी आदेश, निर्णय या पुरस्कार का पालन करने में विफल रहती है, तो उसे **पच्चीस करोड़ रुपये तक के जुर्माने** से दंडित किया जा सकता है।
* **निरंतर उल्लंघन के लिए दंड:** यदि उल्लंघन जारी रहता है, तो पहली दोषसिद्धि के बाद प्रत्येक दिन के लिए **एक लाख रुपये तक का अतिरिक्त जुर्माना** लगाया जा सकता है, जब तक कि उल्लंघन जारी रहता है। यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि उल्लंघनकर्ता शीघ्रता से आदेशों का पालन करें।

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि अधिनियम की धारा २७ यह भी प्रावधान करती है कि यदि अपराध किसी कंपनी द्वारा किया गया है, तो न केवल कंपनी, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति जो अपराध के समय कंपनी के व्यवसाय के संचालन के लिए जिम्मेदार था, को भी दोषी माना जाएगा और उसके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी, जब तक कि वे यह साबित न कर दें कि अपराध उनकी जानकारी के बिना हुआ या उन्होंने अपराध को रोकने के लिए उचित सावधानी बरती थी।

ये दंड संबंधी प्रावधान एनजीटी के आदेशों की प्रभावशीलता और प्रवर्तनीयता सुनिश्चित करते हैं। वे पर्यावरणीय नियमों के उल्लंघन के लिए एक मजबूत निवारक के रूप में कार्य करते हैं और उल्लंघनकर्ताओं को उनके कार्यों के लिए जवाबदेह ठहराते हैं।

**निष्कर्ष:**

राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम, २०१०, एक व्यापक और प्रभावी कानूनी ढांचा है जो भारत में पर्यावरण संरक्षण को मजबूत करता है। अपील और दंड संबंधी इसके प्रावधान महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे न केवल एनजीटी द्वारा पारित आदेशों की समीक्षा और संभावित सुधार के लिए मार्ग प्रदान करते हैं, बल्कि उनके अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए एक मजबूत प्रवर्तन तंत्र भी स्थापित करते हैं। ये प्रावधान यह सुनिश्चित करने में मदद करते हैं कि पर्यावरणीय न्याय केवल कागजों पर न रहे, बल्कि व्यवहार में भी लागू हो, जिससे हमारे पर्यावरण की सुरक्षा और टिकाऊ विकास को बढ़ावा मिले।

वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के अंतर्गत राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड: गठन और कार्य

वन्यजीव संरक्षण भारत में एक महत्वपूर्ण मुद्दा है और इस दिशा में **वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972** एक मील का पत्थर है। यह अधिनियम देश में वन्यजीवों और उनके आवासों के संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए व्यापक प्रावधान प्रदान करता है। इस अधिनियम के तहत स्थापित एक महत्वपूर्ण निकाय **राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड (National Board for Wild Life - NBWL)** है, जो वन्यजीव संरक्षण नीतियों के निर्माण और कार्यान्वयन में एक केंद्रीय भूमिका निभाता है। यह लेख वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के तहत राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड के गठन और उसके प्रमुख कार्यों की विवेचना करता है।

**राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड का गठन:**

वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की धारा 5ए के तहत राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड का गठन किया गया है। यह बोर्ड एक वैधानिक निकाय है, जिसका अर्थ है कि इसे अधिनियम द्वारा ही स्थापित किया गया है। बोर्ड का अध्यक्ष **भारत का प्रधानमंत्री** होता है, जो इसके महत्व और उच्च स्तरीय प्रकृति को दर्शाता है। बोर्ड में विभिन्न क्षेत्रों से सदस्य शामिल होते हैं, जो वन्यजीव संरक्षण से संबंधित विविध दृष्टिकोणों और विशेषज्ञता का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनमें शामिल हैं:

* **केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री:** उपाध्यक्ष के रूप में।
* **संसद सदस्य:** लोकसभा और राज्यसभा से निर्वाचित सदस्य।
* **विभिन्न मंत्रालयों के सचिव:** जैसे वन, पर्यावरण, कृषि, जनजाति कार्य आदि।
* **जाने-माने संरक्षणवादी और वन्यजीव विशेषज्ञ:** जो इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण ज्ञान और अनुभव रखते हैं।
* **वन्यजीवों से संबंधित अन्य प्रतिष्ठित व्यक्ति:** जिन्हें केंद्र सरकार द्वारा नामांकित किया जाता है।
* **राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) के अध्यक्ष:** एक पदेन सदस्य के रूप में।

इस विविध संरचना का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि वन्यजीव संरक्षण से संबंधित सभी पहलुओं पर विचार-विमर्श किया जाए और विभिन्न हितधारकों की राय को शामिल किया जाए।

**राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड के प्रमुख कृत्य (Functions):**

राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड के कार्य व्यापक और महत्वपूर्ण हैं। अधिनियम के तहत, इसके प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं:

1. **वन्यजीव संरक्षण और विकास को बढ़ावा देना:** बोर्ड देश में वन्यजीवों और उनके आवासों के संरक्षण और विकास को बढ़ावा देने के लिए नीतियां और योजनाएं तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।


2. **वन्यजीव संरक्षण से संबंधित मामलों पर सलाह देना:** केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को वन्यजीव संरक्षण से संबंधित सभी महत्वपूर्ण मामलों पर बोर्ड की सलाह अनिवार्य है। इसमें वन्यजीव संरक्षण नीतियों का निर्माण, वन्यजीव अभ्यारण्यों और राष्ट्रीय उद्यानों की स्थापना और प्रबंधन, और वन्यजीव अपराधों पर नियंत्रण जैसे मुद्दे शामिल हैं।


3. **वन्यजीव अभ्यारण्यों और राष्ट्रीय उद्यानों की सीमाओं में बदलाव पर सलाह देना:** किसी भी वन्यजीव अभ्यारण्य या राष्ट्रीय उद्यान की सीमा में परिवर्तन करने से पहले बोर्ड की सहमति आवश्यक है। यह सुनिश्चित करता है कि संरक्षित क्षेत्रों को किसी भी अनुचित प्रभाव से बचाया जाए।


4. **परियोजनाओं की मंजूरी:** किसी भी विकास परियोजना, जैसे खनन, सड़क निर्माण या अन्य अवसंरचना परियोजनाओं को जो राष्ट्रीय उद्यान या वन्यजीव अभ्यारण्य के अंदर या उसके आसपास स्थित हैं, बोर्ड की मंजूरी आवश्यक है। यह पर्यावरण और वन्यजीवों पर संभावित नकारात्मक प्रभावों को कम करने के लिए किया जाता है।


5. **वन्यजीव अनुसंधान को बढ़ावा देना:** बोर्ड वन्यजीवों और उनके आवासों पर अनुसंधान को प्रोत्साहित करता है ताकि संरक्षण प्रयासों को वैज्ञानिक आधार प्रदान किया जा सके।


6. **संरक्षण कार्यक्रमों की समीक्षा और निगरानी:** बोर्ड देश में चल रहे वन्यजीव संरक्षण कार्यक्रमों की समीक्षा करता है और उनकी प्रभावशीलता की निगरानी करता है।


7. **अन्य संबंधित मामले:** अधिनियम द्वारा निर्दिष्ट या सरकार द्वारा सौंपे गए वन्यजीव संरक्षण से संबंधित किसी भी अन्य मामले पर कार्रवाई करना।

संक्षेप में, राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड भारत में वन्यजीव संरक्षण के प्रयासों के लिए एक महत्वपूर्ण शासी निकाय है। इसकी स्थापना अधिनियम के उद्देश्य को प्राप्त करने और वन्यजीवों और उनके आवासों को भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। बोर्ड की बहुआयामी सदस्यता और व्यापक कार्य वन्यजीव संरक्षण के मुद्दों पर एक समग्र और सूचित दृष्टिकोण सुनिश्चित करते हैं। हालांकि, बोर्ड की प्रभावशीलता उसके निर्णयों के समय पर कार्यान्वयन और विभिन्न सरकारी निकायों और जनता के बीच प्रभावी समन्वय पर भी निर्भर करती है।

वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम १९७२ की मुख्य विशेषताएं: एक सिंहावलोकन

भारत में वन्यजीवों और उनके आवासों की सुरक्षा के लिए वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 एक महत्वपूर्ण कानूनी ढाँचा है। यह अधिनियम देश की समृद्ध जैव विविधता को संरक्षित करने, लुप्तप्राय प्रजातियों की रक्षा करने और वन्यजीवों के अवैध शिकार तथा व्यापार को रोकने के उद्देश्य से बनाया गया था। आइए इस अधिनियम की कुछ मुख्य विशेषताओं पर नज़र डालें:

**१. वन्यजीवों का वर्गीकरण और सुरक्षा:**

अधिनियम वन्यजीवों को अनुसूचियों में वर्गीकृत करता है। इन अनुसूचियों में शामिल जीवों की सुरक्षा का स्तर अलग-अलग होता है। उदाहरण के लिए, अनुसूची I और भाग II की अनुसूची II में सूचीबद्ध जीव पूर्ण सुरक्षा के दायरे में आते हैं और उनके शिकार पर पूर्ण प्रतिबंध है। यह वर्गीकरण उन प्रजातियों को प्राथमिकता देने में मदद करता है जिन्हें तत्काल संरक्षण की आवश्यकता है।

**२. संरक्षित क्षेत्रों की स्थापना:**

अधिनियम राष्ट्रीय उद्यानों, वन्यजीव अभयारण्यों और संरक्षित क्षेत्रों की स्थापना और प्रबंधन का प्रावधान करता है। ये क्षेत्र वन्यजीवों के लिए सुरक्षित आवास प्रदान करते हैं और मानव गतिविधियों को नियंत्रित करके उनके प्राकृतिक आवासों की रक्षा करते हैं। राष्ट्रीय उद्यानों में मानव गतिविधियों पर अधिक प्रतिबंध होते हैं, जबकि अभयारण्यों में कुछ सीमित गतिविधियाँ, जैसे कि पर्यटन, की अनुमति दी जा सकती है।

**३. शिकार पर प्रतिबंध:**

अधिनियम वन्यजीवों के शिकार को विनियमित और प्रतिबंधित करता है। कुछ विशिष्ट परिस्थितियों और अनुमति के अलावा, वन्यजीवों का शिकार एक गंभीर अपराध है और इसके लिए कठोर दंड का प्रावधान है। यह अधिनियम अवैध शिकार पर प्रभावी रोक लगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

**४. वन्यजीव उत्पादों का नियंत्रण:**

यह अधिनियम वन्यजीवों से प्राप्त उत्पादों, जैसे कि खाल, सींग, हाथी दांत आदि के व्यापार और कब्जे को भी नियंत्रित करता है। अवैध व्यापार को रोकने और वन्यजीवों के शोषण को कम करने के लिए इन उत्पादों के स्वामित्व और व्यापार के लिए विशेष अनुमतियों की आवश्यकता होती है।

**५. दंडात्मक प्रावधान:**

अधिनियम में वन्यजीवों और उनके आवासों को नुकसान पहुँचाने वाले या अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों के लिए कठोर दंड का प्रावधान है। इन दंडों में भारी जुर्माना और कारावास शामिल हैं, जो उल्लंघन की गंभीरता पर निर्भर करते हैं। यह अपराधियों को हतोत्साहित करने में मदद करता है।

**६. केंद्र और राज्य सरकारों की भूमिका:**

यह अधिनियम वन्यजीव संरक्षण में केंद्र और राज्य सरकारों दोनों की भूमिका और जिम्मेदारियों को परिभाषित करता है। इसमें मुख्य वन्यजीव वार्डन और अन्य प्राधिकृत अधिकारियों की नियुक्ति का भी प्रावधान है, जो अधिनियम को लागू करने और वन्यजीव संरक्षण गतिविधियों का प्रबंधन करने के लिए जिम्मेदार हैं।

**निष्कर्ष:**

वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 भारत में वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए एक मील का पत्थर है। इसने देश की समृद्ध जैव विविधता को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। हालाँकि, वन्यजीव संरक्षण एक निरंतर चुनौती है और इस अधिनियम का प्रभावी कार्यान्वयन तथा समय-समय पर इसमें संशोधन करना हमारी भावी पीढ़ियों के लिए वन्यजीवों को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक है। इस अधिनियम की मुख्य विशेषताओं को समझना प्रत्येक नागरिक के लिए महत्वपूर्ण है ताकि हम सभी वन्यजीव संरक्षण के प्रयासों में अपना योगदान दे सकें।

वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम १९७२: क्या मुख्य वन्य जीव अधीक्षक शिकार की अनुमति दे सकते हैं?

वन्य जीवों का संरक्षण हमारे पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारत में, वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम, १९७२ इस संरक्षण का आधार है। यह अधिनियम वन्य जीवों के शिकार, उनके आवासों की रक्षा और वन्य जीव अभयारण्यों और राष्ट्रीय उद्यानों की स्थापना को नियंत्रित करता है।

यह अधिनियम स्पष्ट रूप से वन्य जीवों के शिकार को प्रतिबंधित करता है। हालांकि, कुछ विशेष परिस्थितियों में, अधिनियम मुख्य वन्य जीव अधीक्षक (Chief Wildlife Warden) को वन्य जीवों के शिकार की अनुमति देने का अधिकार प्रदान करता है। यह जानना महत्वपूर्ण है कि यह अनुमति एक सामान्य छूट नहीं है, बल्कि केवल विशिष्ट और दुर्लभ मामलों में ही दी जा सकती है।

अधिनियम की धारा ११ में उन परिस्थितियों का विस्तार से उल्लेख किया गया है जिनके तहत मुख्य वन्य जीव अधीक्षक शिकार की अनुमति दे सकते हैं। इन परिस्थितियों में शामिल हैं:

* **मानव जीवन के लिए खतरा:** यदि कोई वन्य जीव मानव जीवन के लिए वास्तविक और आसन्न खतरा पैदा कर रहा है, तो मुख्य वन्य जीव अधीक्षक उस वन्य जीव को मारने या फंसाने की अनुमति दे सकते हैं। यह निर्णय वैज्ञानिक और व्यावहारिक मूल्यांकन के बाद लिया जाता है।


* **संपत्ति को व्यापक नुकसान:** यदि कोई वन्य जीव कृषि फसलों, पशुधन या अन्य संपत्ति को गंभीर और व्यापक नुकसान पहुंचा रहा है, और अन्य निवारक उपाय विफल हो गए हैं, तो भी अनुमति दी जा सकती है।


* **बीमारी या चोट:** यदि कोई वन्य जीव लाइलाज बीमारी या गंभीर चोट से पीड़ित है जिसके कारण उसे पीड़ा हो रही है और जिसका इलाज संभव नहीं है, तो मानवीय आधार पर उसे मारने की अनुमति दी जा सकती है।


* **वैज्ञानिक अनुसंधान या प्रबंधन:** दुर्लभ मामलों में, वैज्ञानिक अनुसंधान या वन्य जीव प्रबंधन के विशिष्ट उद्देश्यों के लिए भी सीमित संख्या में वन्य जीवों को पकड़ने या स्थानांतरित करने की अनुमति दी जा सकती है।

यह ध्यान रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि मुख्य वन्य जीव अधीक्षक द्वारा दी गई कोई भी अनुमति सख्ती से विनियमित होती है। यह अनुमति हमेशा लिखित में होनी चाहिए और इसमें शिकार किए जाने वाले वन्य जीव की प्रजाति, संख्या, स्थान और समय-सीमा का स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए। इसके अलावा, शिकार के तरीकों और शिकार के बाद के निपटान के संबंध में भी दिशानिर्देश दिए जाते हैं।

मुख्य वन्य जीव अधीक्षक से अनुमति प्राप्त करने की प्रक्रिया जटिल और विस्तृत होती है। इसमें संबंधित अधिकारियों द्वारा गहन जांच और मूल्यांकन शामिल होता है। यह सुनिश्चित किया जाता है कि अनुमति देने से पहले सभी संभावित वैकल्पिक उपाय अपनाए गए हैं और शिकार अंतिम उपाय है।

सारांश में, वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम, १९७२ का प्राथमिक उद्देश्य वन्य जीवों का संरक्षण है और यह शिकार को सख्ती से प्रतिबंधित करता है। हालांकि, अधिनियम मुख्य वन्य जीव अधीक्षक को कुछ विशिष्ट और असाधारण परिस्थितियों में, जैसे कि मानव जीवन की रक्षा, संपत्ति को गंभीर नुकसान, बीमारी या चोट, या वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए सीमित अनुमति देने का अधिकार देता है। यह अनुमति केवल अंतिम उपाय के रूप में दी जाती है और सख्त नियमों और शर्तों के अधीन होती है। यह दर्शाता है कि अधिनियम संतुलन बनाने का प्रयास करता है - वन्य जीवों के संरक्षण और मानव सुरक्षा और कल्याण के बीच।

पर्यावरणीय विधि में "परिसंकटमय पदार्थ"

पर्यावरणीय विधि के क्षेत्र में, **"परिसंकटमय पदार्थ" (Hazardous Substances)** एक महत्वपूर्ण और संवेदनशील विषय है। यह शब्द ऐसे पदार्थों को संदर्भित करता है जिनमें उनके भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणों के कारण मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए गंभीर जोखिम पैदा करने की क्षमता होती है।

इन पदार्थों का उचित प्रबंधन, भंडारण, परिवहन और निपटान पर्यावरणीय कानूनों का एक केंद्रीय पहलू है। विभिन्न कानूनों और नियमों के तहत, परिसंकटमय पदार्थों की पहचान, वर्गीकरण और इनसे संबंधित गतिविधियों को विनियमित किया जाता है ताकि प्रदूषण को रोका जा सके और पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा की जा सके।

इस परिभाषा में शामिल हो सकते हैं:

* **विषाक्त पदार्थ (Toxic Substances):** जो जीवन के लिए हानिकारक हैं।


* **ज्वलनशील पदार्थ (Flammable Substances):** जो आसानी से आग पकड़ते हैं।


* **संक्षारक पदार्थ (Corrosive Substances):** जो अन्य पदार्थों को क्षति पहुँचाते हैं।


* **प्रतिक्रियाशील पदार्थ (Reactive Substances):** जो अस्थिर होते हैं और विस्फोटक प्रतिक्रियाएँ दे सकते हैं।

पर्यावरणीय विधि परिसंकटमय पदार्थों से उत्पन्न खतरों को नियंत्रित करने और न्यूनतम करने के लिए एक ढाँचा प्रदान करती है, जिससे हमारे ग्रह की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।


---

पर्यावरणीय विधि के अंतर्गत "शांत परिक्षेत्र" क्या है?

पर्यावरणीय विधि के क्षेत्र में, "शांत परिक्षेत्र" (Silent Zone) एक महत्वपूर्ण अवधारणा है। यह ऐसे विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्रों को निर्दिष्ट करता है जहाँ ध्वनि प्रदूषण के स्तर को नियंत्रित या न्यूनतम रखा जाता है।

**शांत परिक्षेत्र का उद्देश्य:**

शांत परिक्षेत्र स्थापित करने का मुख्य उद्देश्य संवेदी स्थलों, जैसे कि शैक्षणिक संस्थान (स्कूल, कॉलेज), अस्पताल, न्यायालय और धार्मिक स्थल, के आसपास के वातावरण को शांत बनाए रखना है। इन क्षेत्रों में अत्यधिक शोर से बचने से छात्रों की एकाग्रता, रोगियों की रिकवरी, कानूनी कार्यवाही की सुचारूता और धार्मिक गतिविधियों की शांति बनाए रखने में मदद मिलती है।

**कानूनी प्रावधान:**

भारत में, शांत परिक्षेत्र की अवधारणा को विभिन्न पर्यावरणीय कानूनों और नियमों के तहत मान्यता प्राप्त है, विशेष रूप से ध्वनि प्रदूषण (विनियमन और नियंत्रण) नियम, 2000 के तहत। ये नियम शांत परिक्षेत्रों में अनुमेय ध्वनि स्तर की सीमा निर्धारित करते हैं और इन सीमाओं का उल्लंघन दंडनीय अपराध हो सकता है।

**निष्कर्ष:**

शांत परिक्षेत्र हमारी पर्यावरणीय विधि का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो संवेदनशील क्षेत्रों में जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाने और ध्वनि प्रदूषण के नकारात्मक प्रभावों को कम करने में सहायक है। इन क्षेत्रों के महत्व को समझना और उनके नियमों का पालन करना सभी नागरिकों का कर्तव्य है।

पर्यावरणीय विधि के अंतर्गत "बंदी पशु" क्या है?

पर्यावरणीय विधि के संदर्भ में "बंदी पशु" (Captive Animal) एक महत्वपूर्ण शब्दावली है। इसका सीधा अर्थ ऐसे वन्यजीवों से है जिन्हें मानव नियंत्रण में रखा जाता है, चाहे वह किसी चिड़ियाघर, अभयारण्य, बचाव केंद्र या निजी संग्रह का हिस्सा हों।

भारत में, वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 (Wildlife Protection Act, 1972) के तहत बंदी पशुओं को नियंत्रित किया जाता है। यह अधिनियम ऐसे जानवरों के स्वामित्व, रखरखाव और स्थानांतरण के संबंध में विस्तृत नियम और दिशा-निर्देश प्रदान करता है। अधिनियम का उद्देश्य इन जानवरों के कल्याण को सुनिश्चित करना और अवैध व्यापार को रोकना है।

बंदी पशुओं का प्रबंधन पर्यावरण और पशु कल्याण दोनों दृष्टियों से संवेदनशील विषय है। इन जानवरों को उचित आवास, पोषण और स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करना कानूनी और नैतिक जिम्मेदारी है। साथ ही, इनके प्रजनन और स्थानांतरण से संबंधित नियमों का पालन करना भी अनिवार्य है।

संक्षेप में, पर्यावरणीय विधि के अंतर्गत "बंदी पशु" वे वन्यजीव हैं जो मानव संरक्षण में हैं, और इनके प्रबंधन को नियंत्रित करने के लिए विशेष कानून और नियम लागू होते हैं।

You may have missed

BNSS : दंडादेश: दंड न्याय प्रशासन में भूमिका और प्रासंगिकता

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023, ने भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में महत्वपूर्ण बदलाव लाए हैं। इस संहिता का एक प्रमुख पहलू "...