👉 प्रसूति लाभ के संदाय पाने के अधिकारों की व्याख्या कीजिये?
भारत में, प्रसूति लाभ अधिनियम, 1961 (Maternity Benefit Act, 1961) कामकाजी महिलाओं को मातृत्व के दौरान रोजगार संबंधी लाभ प्रदान करता है। इस अधिनियम के तहत, एक महिला को निम्नलिखित अधिकार प्राप्त हैं:
- मातृत्व अवकाश:
- पहले दो बच्चों के लिए 26 सप्ताह का सवैतनिक अवकाश।
- दो से अधिक बच्चों के लिए 12 सप्ताह का सवैतनिक अवकाश।
- दत्तक ग्रहण (adoption) करने वाली माँ के लिए 12 सप्ताह का सवैतनिक अवकाश।
- मातृत्व लाभ की दर:
- औसत दैनिक मजदूरी का 100%।
- चिकित्सा बोनस:
- यदि नियोक्ता द्वारा प्रसवपूर्व और प्रसवोत्तर देखभाल के लिए कोई निशुल्क सुविधा प्रदान नहीं की जाती है, तो महिला चिकित्सा बोनस की हकदार है।
- कार्यस्थल सुरक्षा:
- गर्भावस्था, प्रसव, या स्वास्थ्य संबंधी कारणों से महिला को नौकरी से नहीं निकाला जा सकता है।
- अन्य लाभ:
- काम पर लौटने के बाद शिशु के पोषण के लिए दिन में दो बार विश्राम का अधिकार।
- गर्भावस्था के दौरान महिला को खतरनाक काम से दूर रखने का अधिकार है।
- प्रत्येक संस्थाओं में शिशु सदन का अधिकार है।
- सूचना का अधिकार:
- महिला को गर्भावस्था के बारे में नियोक्ता को सूचित करने का अधिकार है, और नियोक्ता को महिला के अधिकारों के बारे में सूचित करना आवश्यक है।
यह अधिनियम 10 या अधिक कर्मचारियों वाले सभी प्रतिष्ठानों पर लागू होता है।
👉 बीमा योग्य हित से आप क्या समझते हैं?
बीमा योग्य हित
बीमा अधिनियम 1938 में बीमा योग्य हित को परिभाषित नहीं किया गया है लेकिन बीमा योग्य हित ही एक ऐसा तत्व होता है जो बीमा की संविदा को जुआ की या पद्यम (बाजी) की संविदा से भिन्न करता है. जब तक बीमाधारी में बीमा योग्य हित न हो बीमा नहीं करा सकता | बीमा संविदा करने वाले पक्षकार इस तत्व या बात के लिए सहमत होते हैं कि किसी ऐसी घटना के घटने पर जिसमें उनका कोई तात्विक हित हो, उनमें से एक पक्ष दूसरे पक्ष को एक निश्चित धनराशि का भुगतान करेगा इसी तात्विक हित को बीमा योग्य हित कहा जाता है. जस्टिस लॉरेंस ने बीमा योग्य हित को परिभाषित करते हुए लिखा है कि उसे (बीमा योग्य हित) बीमित वस्तु से इस प्रकार सम्बंधित होना चाहिए कि उसके अस्तित्व से बीमा धारक को लाभ और उसके नष्ट होने से बीमा धारक को हानि हो .
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 हिंदुओं के विवाह से संबंधित विधि को सहिंताबद्ध करने के उद्देश्य से भारत गणराज्य के छठे वर्ष में संसद द्वारा अधिनियमित किया गया है। यह अधिनियम हिंदुओं के विवाह से संबंधित संपूर्ण विधि उपलब्ध करता है।
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 एवं प्राचीन शास्त्रीय विधि के अंतर्गत विवाह- प्राचीन काल से वर्तमान समय तक स्त्री और पुरुष के संबंधों में विवाह को सर्वाधिक योग्य एवं उपयोगी प्रथा माना गया है। आज भी विवाह से अधिक सार्थक प्रथा मनुष्यों के पास स्त्री और पुरुषों के संबंध को लेकर उपलब्ध नहीं है। प्राचीन हिंदू विधि में विवाह एक संस्कार माना गया है। विवाह को हिंदुओं के सोलह संस्कारों में से एक अत्यंत महत्वपूर्ण संस्कार माना है। धर्म अनुसार मोक्ष प्राप्त करने के लिए पुत्र की उत्पत्ति आवश्यक है जिसके लिए विवाह का होना अनिवार्य है। हिंदू विधि में पुत्र को रत्न के समतुल्य माना गया है। पुत्र का अर्थ नर्क से रक्षा करने वाला होता है। पुत्र श्राद्ध आदि कर्मों से पिता की आत्मा को नरक से मुक्ति प्रदान करता है, इसलिए कहा गया है कि पुत्रहीन की गति नहीं होती है। धार्मिक अनुष्ठानों के लिए पत्नी आवश्यक है, वंश को चलाने के लिए भी पुत्र की आवश्यकता हिन्दू विधि भाग 1 : जानिए हिन्दू विधि (Hindu Law) और हिंदू विवाह (Hindu Marriage) से संबंधित आधारभूत बातें
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