भारतीय कानूनी प्रणाली में, 'परिसीमा' का सिद्धांत अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह सिद्धांत किसी भी कानूनी कार्रवाई को एक निर्धारित समय-सीमा के भीतर शुरू करने की अनिवार्यता पर आधारित है। परिसीमा अधिनियम, 1965, इस समय-सीमा को निर्धारित करता है, जिसका उद्देश्य अनावश्यक देरी को रोकना और निश्चितता लाना है।
परिसीमा अधिनियम का एक महत्वपूर्ण पहलू कुछ विशेष परिस्थितियों में परिसीमा अवधि की गणना करते समय कुछ समय का अपवर्जन (Exclusion) है। इसका अर्थ है कि ऐसे विशेष समय को कुल परिसीमा अवधि में से घटा दिया जाता है। इन विशेष परिस्थितियों में से एक अत्यंत प्रासंगिक परिस्थिति है "वैध कार्यवाही में लगा समय"।
**परिभाषा और उद्देश्य:**
परिसीमा अधिनियम की धारा 14 विशेष रूप से कुछ परिस्थितियों में विधिक कार्यवाही में लगे समय के अपवर्जन का प्रावधान करती है। इस धारा का मूल उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि एक वादी, जो सद्भावनापूर्वक और उचित परिश्रम से एक सक्षम न्यायालय में अपनी कानूनी कार्यवाही शुरू करता है, केवल प्रक्रियात्मक या तकनीकी त्रुटियों के कारण उस कार्यवाही में लगे समय की वजह से अपने अधिकार से वंचित न हो जाए। दूसरे शब्दों में, यह धारा सद्भावनापूर्वक न्याय प्राप्त करने के प्रयास की रक्षा करती है।
**धारा 14 के तहत अपवर्जन के लिए आवश्यक शर्तें:**
धारा 14 के तहत विधिक कार्यवाही में लगे समय के अपवर्जन का लाभ उठाने के लिए कुछ प्रमुख शर्तों को पूरा करना आवश्यक है:
1. **पूर्ववर्ती कार्यवाही का होना:** अपवर्जन का दावा करने वाली कार्यवाही से पूर्व कोई अन्य विधिक कार्यवाही रही हो।
2. **समान विषय वस्तु:** दोनों कार्यवाहियों का विषय वस्तु (subject matter) समान या काफी हद तक समान होना चाहिए।
3. **समान पक्षकार:** दोनों कार्यवाहियों में पक्षकार (parties) समान या उनके प्रतिनिधि होने चाहिए।
4. **सद्भावना और उचित परिश्रम:** पूर्ववर्ती कार्यवाही सद्भावनापूर्वक और उचित परिश्रम के साथ की जानी चाहिए थी। इसका अर्थ है कि वादी का इरादा ईमानदार था और उसने उचित प्रयास किए थे।
5. **क्षेत्राधिकार या समान प्रकृति की त्रुटि:** पूर्ववर्ती कार्यवाही का असफल होना क्षेत्राधिकार की कमी या इसी तरह की प्रकृति की किसी अन्य त्रुटि के कारण होना चाहिए, न कि गुण-दोष (merits) के आधार पर।
**अपवर्जन कैसे काम करता है?**
यदि उपरोक्त सभी शर्तें पूरी होती हैं, तो पूर्ववर्ती विधिक कार्यवाही शुरू होने की तारीख से लेकर उसके समाप्त होने की तारीख तक की अवधि को बाद वाली कार्यवाही के लिए निर्धारित कुल परिसीमा अवधि में से घटा दिया जाएगा। इस प्रकार, वादी को उस समय के लिए राहत मिलती है जो उसने पहले की कार्यवाही में न्याय पाने के प्रयास में लगाया था।
**उदाहरणों के माध्यम से समझ:**
इस प्रावधान को बेहतर ढंग से समझने के लिए कुछ उदाहरण देखते हैं:
* **उदाहरण 1 (क्षेत्राधिकार की कमी):** मान लीजिए 'अ' ने 'ब' के खिलाफ एक मुकदमा एक ऐसे न्यायालय में दायर किया जिसका क्षेत्राधिकार (jurisdiction) नहीं था। मुकदमा चलने के कुछ समय बाद, न्यायालय ने क्षेत्राधिकार की कमी के आधार पर मुकदमा खारिज कर दिया। बाद में, 'अ' ने उसी विषय वस्तु पर और उसी 'ब' के खिलाफ सक्षम क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय में नया मुकदमा दायर किया। इस स्थिति में, यदि 'अ' ने सद्भावनापूर्वक और उचित परिश्रम से पहला मुकदमा दायर किया था, तो पहले मुकदमे में लगे समय (मुकदमा दायर होने की तारीख से खारिज होने की तारीख तक) को दूसरे मुकदमे के लिए परिसीमा अवधि की गणना करते समय अपवर्जित किया जाएगा।
* **उदाहरण 2 (प्रक्रियात्मक त्रुटि):** मान लीजिए 'स' ने 'द' के खिलाफ एक वाद दायर किया, लेकिन कुछ आवश्यक प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं का पालन करने में त्रुटि रह गई, जिसके कारण न्यायालय ने उस वाद को तकनीकी आधार पर खारिज कर दिया, न कि वाद के गुण-दोष पर। बाद में, 'स' ने प्रक्रियात्मक त्रुटियों को सुधार कर नया वाद दायर किया। यदि पहली कार्यवाही सद्भावनापूर्वक की गई थी, तो पहले वाद में लगे समय का अपवर्जन किया जा सकता है।
**महत्व और निहितार्थ:**
धारा 14 का प्रावधान अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह उन वादियों को सुरक्षा प्रदान करता है जो तकनीकी या प्रक्रियात्मक बाधाओं के कारण न्याय से वंचित हो सकते हैं। यह प्रावधान कानूनी प्रक्रिया में विश्वास बनाए रखने में मदद करता है और यह सुनिश्चित करता है कि सद्भावनापूर्वक न्याय की मांग करने वाले व्यक्ति को अनुचित रूप से दंडित न किया जाए। यह एक न्यायसंगत सिद्धांत पर आधारित है कि किसी व्यक्ति को केवल उस समय की वजह से अपना अधिकार नहीं खोना चाहिए जो उसने एक वैध विधिक उपाय प्राप्त करने में व्यतीत किया है, खासकर जब वह उपाय क्षेत्राधिकार या समान प्रकृति की त्रुटि के कारण असफल रहा हो।
**निष्कर्ष:**
परिसीमा अधिनियम, 1965 के तहत विधिक कार्यवाही में लगे समय का अपवर्जन एक महत्वपूर्ण प्रावधान है जो न्याय के सिद्धांतों को कायम रखता है। यह सुनिश्चित करता है कि तकनीकी बाधाएं न्याय की राह में अवरोध न बनें और सद्भावनापूर्वक अपनी कानूनी लड़ाई लड़ने वाले वादियों को अनुचित रूप से परिसीमा के कारण अपने अधिकारों से वंचित न होना पड़े। इस प्रावधान की जटिलताओं को समझना कानूनी पेशेवरों और आम जनता दोनों के लिए महत्वपूर्ण है ताकि वे अपने अधिकारों और दायित्वों के प्रति सचेत रहें।
**अस्वीकरण:** यह ब्लॉग पोस्ट केवल सामान्य जानकारी के लिए है और इसे कानूनी सलाह नहीं माना जाना चाहिए। किसी भी विशिष्ट मामले के संबंध में कानूनी सलाह के लिए कृपया एक योग्य कानूनी पेशेवर से संपर्क करें।
Monday, 12 May 2025
परिसीमा अधिनियम, 1965: विधिक कार्यवाही में लगे समय का अपवर्जन
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